Thursday, 7 December 2017

वीर दुर्गादास राठौड(दूध की लाज)

A Hindi Story on Veer Shiromanhi Durgadas Rathore By lt.Kr.Ayuvan Singh Shekhawat, Hudeel
“शायद आश्विन के नौरात्र थे वे । पिताजी घर के सामने के कच्चे चबूतरे पर शस्त्रों को फैला कर बैठे हुए थे । उनके हाथ में चाँदी के मूठ की एक तलवार थी जिस पर वे घी मल रहे थे । माताजी पास में ही बैठी उन्हें पंखा झुला रही थी । दिन का तीसरा प्रहर था वह । सामने के नीम के पेड़ के नीचे हम सब बालक खेल रहे थे । बालकों की उस टोली में मेरे से छोटे कम और बड़े अधिक थे । उस दिन बहुत से खेल खेले गए और प्रत्येक खेल में मैं ही विजयी रहा । मेरे साथी बालक मेरी शारीरिक शक्ति, चपलता और तीव्र गति से मन ही मन मेरे से कुढ़ते थे और मैं अपने इन गुणों पर एक विजयी योद्धा की भाँति सदैव गर्व करता था । दो साँड़ों की अचानक लड़ाई से हमारे खेल का तारतम्य टूट गया । साँड़ लड़ते-लड़ते उधर ही आ निकले थे इसलिए सब बच्चे उनके भय से अपने-अपने घर दौड़ गए । मैंनें उन लड़ते हुए साँड़ों के कान पकड़ लिए । न मालूम क्यों उन्होंने लड़ना बन्द कर दिया । उनमें से एक साँड़ मुझे मारने ही वाला ही था कि मैं उसका कान छोड़ कर पूरी गति दौड़ पड़ा । वह साँड़ भी मेरे पीछे दौड़ पड़ा पर उसे कई हाथ पीछे छोड़ता हुआ मैं कूद कर माताजी की गोद में जा बैठा।…….’

“… मैंने अनुभव किया कि गर्म जल की एक बूंद मेरे गालों को छूती हुई नीचे जा गिरी । मैंनें उनपर देखा तो माताजी की ऑखे सजल थी ।’’
मैंने पूछा -“आप क्यों रो रही हैं ?’ उन्होंने एक गहरा निःश्वास छोड़ते हुए उत्तर दिया – ‘‘यों ही ।’

मैंने भूमि पर पैरों को मचलते हुए कहा – “सच बताओ ।’ वे मेरी हठी प्रवृत्ति को जानती थी । इसलिए बोली -“तुम्हें देख कर ऐसी ही भावना हो गई ।’
मैंने पूछा- क्यों? उन्होंने उत्तर दिया – ‘‘तेरी चपलता और तेज दौड़ को देख कर ‘‘
मैंने कहा -“इसी के कारण तो मैं सभी खेलों में जीता हूँ, इसलिए आपको तो प्रसन्न होना चाहिए ।’ उन्होंने कहा -“तेरी इस चपलता को देख कर मुझे डर होने लगा है कि कहीं तू मेरे दूध को न लजा दे ।’ मैंने पूछा -‘‘मैं आपके दूध को कैसे लजा दूँगा ?’ वे बोली – “डर कर यदि तू कभी युद्ध से भाग गया और कायर की भाँति कहीं मर गया तो दोनों पक्षों को लज्जित होना पड़ेगा । मेरे दूध पर कायर पुत्र की माता होने के कारण कलंक का अमिट धब्बा लग जाएगा । तेरी चपलता और गति को देख कर मुझे सन्देह होने लगा है कि कहीं तू इसी भाँति रणभूमि से न दौड़ जाए।”
“… मैं लज्जा और क्रोध से तिलमिला उठा । अब तक अपनी जिस विशेषता को मैं गुण समझ रहा था, वह अभिशाप सिद्ध हुई । मैं माताजी के सन्देह को उसी समय मिटाना चाहता था । मैंनें तत्काल निर्णय किया और माताजी की गोद से उठ कर पास में पड़ी हुई एक तलवार को उठा कर अपने पैर पर दे मारा । मैं दूसरा वार करने ही वाला था कि पिताजी ने लपक कर मेरा हाथ पकड़ लिया और डांट कर पूछा- यह क्या कर रहा है ?’

मैंनें कहा -“ अपने पैर को काट कर माताजी का सन्देह मिटा रहा हूँ. एक पैर कट जाने पर मैं युद्ध-भूमि से भाग नहीं सकँगा|“
पैर से खून बह चला । पिताजी ने कहा – ‘‘यह लड़का बड़ा उद्दण्ड होगा । माताजी ने सगर्व नेत्रों से मेरे पैर के घाव को दोनों हाथों से ढक दिया।’

‘धर्मदासजी, यह घटना सत्तर वर्ष पुरानी है, पर लगता है जैसे कल ही घटित हुई ।“ यह कहते हुए वृद्ध सरदार ने अपनी आँखें खोली ।
“सन्निपात का जोर कुछ कम हुआ है, गुरूजी ?’ चरणदास ने कुटिया में प्रवेश करते हुए पूछा।
“यह सन्निपात नहीं है बेटा ! तुम शीघ्र जाकर खरल में रखी हुई औषधि का काढा तैयार कर ले आआो ।’’
रात्रि के सुनसान में धर्मदास जी की कुटिया धीमे प्रकाश में जगमगा उठी । नदी में जल पीने को जाता हुआ सुअरों का एक झुण्ड उस प्रकाश से चौकन्ना होकर डर्र-डर्र करता हुआ तेजी से दूर भाग गया । चरणदास ने धूनी में और लकडियाँ डालते हुए सुअरों को दूर भगाने के लिए जोर से किलकारी मारी । कुटिया के सामने बँधा हुआ घोडा अपनी टाप से भूमि खोदता हुआ हिनहिनाया । उस हिनहिनाहट की ध्वनि से नि:स्तब्ध वन में चारों ओर ध्वनि का विस्तार हो गया । सैकड़ों पशु-पक्षियों ने उस ध्वनि का अपनी-अपनी भाषा में प्रत्युत्तर दिया । थोड़े समय के लिए उस नीरव वन में एक कोलाहल सा मच गया । धर्मदास जी भी इस कोलाहल से प्रभावित होकर बाहर आए, देखा – चरणदास आग में पूँके मार रहा था ।
“शीघ्रता करो बेटा !’ कहते हुए उन्होंने समय का अनुमान लगाने के लिए आकाश की ओर देखा । पश्चिमी क्षितिज पर मार्गशीर्ष की शुक्ला दशमी का चन्द्रमा अन्तिम दम तोड़ रहा था । और फिर वे तत्काल ही कुटिया के भीतर चले गए ।

क्षिप्रा नदी के प्रवाह द्वारा तीन ओर से कट जाने के कारण एक ऊँचा और उन्नत टीला अन्तद्वीपाकर बन गया था । उसके पूर्व में विस्तृत और सघन वन था । लगभग तीस वर्ष पहले इसी स्थान पर क्षिप्रा के सहवास में धर्मदास जी ने तपस्या के लिए अपना आश्रम बनाया, धर्मदासजी के परिश्रम के कारण आश्रम एक सुन्दर तपोवन में परिवर्तित हो गया। था । तीन वर्ष पहले एक धनाढ्य युवक ने आकर उनसे दीक्षा ली थी । यही युवक चरणदास
के नाम से उनका शिष्य होकर विद्याध्ययन और गुरू-सेवा करने लगा । धर्मदास जी शास्त्रों के प्रकाण्ड पंडित, आयुर्वेद के पूर्ण ज्ञाता, तपस्वी और सात्विक प्रवृति-सम्पन्न महात्मा थे । उनके ज्ञान और तपोबल से आश्रम में सदैव शान्ति का वातावरण रहता था । एक कुटिया, कमण्डल, मिट्टी के कुछ पात्र, चिमटा, पत्थर की एक खरल, कुछ पोथियाँ और थोड़े से मोटे-मोटे ऊनी और सूती वस्त्र- बस यही उनकी सम्पति थी । वन के कन्द, मूल, फल और कभी-कभी चरणदास द्वारा प्राप्त भिक्षान्न द्वारा उनका निर्वाह सरलता से हो जाता था |
धर्मदास जी के इसी आश्रम पर दस दिन पूर्व संध्या समय वीर-भेष में एक वयोवृद्ध सरदार अतिथि के रूप में आए । उनका घोड़ा उन्नत, बलिष्ठ और तेजस्वी था । सरदार की वेश-भूषा, आकार-आकृति और व्यवहार में स्पष्ट रूप से सौम्यता, सरलता और अधिकार की व्यंजना होती थी । वे एक असाधारण व्यक्तित्व -सम्पन्न व्यक्ति थे । उस समय उन्हें हल्का ज्वर था । धर्मदासजी ने अतिथि का यथायोग्य सत्कार किया । वे प्रात:काल उठ कर जाना चाहते थे पर उनके बिगड़ते हुए स्वास्थ्य को देख कर धर्मदासजी ने आग्रह करके उन्हें वहीं रोक लिया । वे दस दिनों से सावधानीपूर्वक उनकी चिकित्सा कर रहे थे पर रोग घटने के स्थान पर बढ़ता ही चला जा रहा था । उस रात को धर्मदासजी को विश्वास हो गया था कि अब सरदार का अन्तिम समय आ पहुँचा है ।

“मैं आज निर्धन और असहाय हूँ, धर्मदासजी इसीलिए आपसे सेवा कराने के लिए विवश हूँ ।’ सरदार ने अपनी घास की शय्या पर हाथ फेरते हुए कहा । ‘‘कयों मेरी सेवा से क्या आपति है महाराज?‘‘ ‘‘आप महात्मा हैं और मैं . |”
‘ऐसे मत कहो दुर्गादासजी, आप महात्माओं के भी पूजनीय हैं ।“ आपकी त्याग और तपस्या के सामने हमारी तपस्या है ही कितनी ?’
‘‘पर आप ब्राह्मण जो हैं ।’’
“आप भी तो हमारे अतिथि हैं। अतिथि-सेवा से बढ़ कर पुण्य लाभ और क्या हो। सकता है ? और फिर आप जैसे अतिथि तो किसी भाग्यवान को ही मिलते हैं।’’
इतने में चरणदास काढा लेकर आ गया । धर्मदासजी ने दुर्गादास जी की नाड़ी देखते हुए उन्हें काढा पिला दिया । फिर उन्होंने पूछा – ‘गीता सुनाऊँ दुर्गादासजी ?
“नहीं धर्मदासजी, अब गीता सुनने का समय नहीं। अब उसे क्रियान्वित करने का समय है ।’’ काढा पीने से उनके शरीर में कुछ गर्मी आई । हाथ के संकेत से धर्मदासजी को अपने पास बुलाते हुए उन्होंने कहा – ‘मुझे सहारा देकर बैठा दो ।” धर्मदास जी ने घास का गट्ठर उनके सिरहाने रखते हुए उन्हें गट्टर के सहारे बैठा दिया ।
‘धर्मदास जी सत्तर वर्ष पुरानी वह घटना अब ज्यों की त्यों याद आ रही है । मेरे इस शरीर में छोटे-बड़े अनेकों घाव हैं, पर न मालूम क्यों पैर वाले उस छोटे से घाव में आज पीड़ा अनुभव हो रही है । मुझे ऐसा लग रहा है कि वह माताजी के सामने किए गए संकल्प की मुझे याद दिला रहा है। यह कह कर उन्होंने बाँई पिण्डली के उस घाव पर हाथ फेरना प्रारम्भ कर दिया ।
“कभी-कभी अन्य लोकों में पहुँच जाने के उपरान्त भी हमारी शुभचिन्तक आत्माएँ हमारा परोक्ष रूप से मार्गदर्शन करती और हमें अपने कर्त्तव्य का स्मरण दिलाती रहती हैं ।’’

“हाँ, धर्मदासजी ! मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि जैसे माताजी का सन्देश कोई मेरे कानों में कह रहा है ।‘‘
इतना कह कर उन्होंने अपनी गर्दन के नीचे किसी सहारे के लिए संकेत किया । धर्मदासजी ने अपना ऊनी कम्बल उनकी गर्दन के नीचे रख दिया ।
“पर धर्मदासजी, मैं कभी डर कर युद्ध-भूमि से भागा नहीं। काबुल की बफॉली घाटियों में सैकड़ों पठानों को हम दो-तीन आदमी अपने वश में कर लेते थे । वे भीमजी कितने बहादुर थे । वे थे तो हमसे बड़े पर अफीम खाने के कारण हम उन्हें अमलीबाबा ही कह कर पुकारते थे । बड़े दरबार भी उन्हें अमलीबाबा ही कहा करते थे ।
“….. हाँ तो एक दिन मीर के एक पठान पहलवान ने आकर कहा कि राठौड़ी लश्कर में मुझसे लड़ने वाला कौन है ? इतना सुनना था कि अमलीबाबा तलवार लेकर सामने आ खड़े हुए । उनके दुबले-पतले शरीर को देख कर पठान पहलवान खूब हँसा । मैंनें तलवार की मूंठ पर हाथ रखा पर दरबार ने इशारे से मुझे बैठा दिया । बात की बात में पहलवान ने अमली बाबा को अपने भाले की नोंक से पिरो कर उलटा लटका दिया और खड़ा कर दिया । दरबार का लज्जा के मारे मुँह नीचा हो गया। । इतने में कोई गूंज उठा ‘‘रण बंका राठौड़ सब लश्कर ने एक साथ दोहराया “रण बंका राठौड़’ इतना सुनना था कि अमलीबाबा ने अपने पेट का एक जोरदार धक्का नीचे की ओर दिया । भाला उनके शरीर को चीरता हुआ ऊपर निकलता गया और अमलीबाबा नीचे की ओर सिरकने लगे । ज्योंही पहलवान के सिर से एक हाथ ऊपर रहे तलवार का एक ऐसा हाथ मारा कि उस पठान का सिर भुट्टे की तरह कट कर दूर जा गिरा ।”
‘अब थोड़ा विश्राम कीजिए दुर्गादास जी ॥“

“मैंनें जीवन में कभी विश्राम नहीं किया धर्मदासजी । अब महाविश्राम करने जा रहा हूँ, इसलिए इस क्षणिक विश्राम की आवश्यकता ही क्या है ?’
‘‘दिल्ली में रूपसिंह राठौड़ की हवेली में अपने स्वामी की राणियों को जौहर-स्नान करा कर मैं शाही लश्कर को काटता हुआ निकल गया । सैकड़ों बार मैं शाही लश्कर को काटता हुआ इधर से उधर निकल गया पर डर कर एक बार भी नहीं भागा । मैंनें माताजी के दूध को कभी नहीं लजाया धर्मदासजी ।’
“….. मैंनें अपने स्वामी के द्वारा सौंपे गए कर्त्तव्य को भली-भाँति पूरा किया । तीस वर्षों के निरन्तर संघर्ष के उपरान्त मरूधरा आज स्वतंत्र हुई । मेरे स्वर्गीय स्वामी महाराज जसवन्तसिंहजी के आत्मज जोधपुर की गद्दी पर विराजमान हैं । चामुण्डा माता उनका कल्याण करें । अजीतसिंह जी जन्मे ही नहीं थे उसके पहले ही मैंनें उनकी सुरक्षा का वचन अपने स्वामी को दिया था । आज वे पूर्ण युवावस्था में जोधपुर की गद्दी पर आसीन हैं – मेरे कर्त्तव्य की इतिश्री हुई । मैंनें स्वामी-सेवक धर्म का भली-भाँति पालन किया है धर्मदासजी । माताजी के दूध को कभी लजाया नहीं धर्मदासजी ।’
“……………..मैंने सदैव औरंगजेब के प्रलोभनों को ठुकराया, घाटी की लड़ाई में औरंगजेब की बेगम गुलनार को कैद करके उसके साथ भी सम्मान का व्यवहार किया, अकबर के बाल-बच्चों को अपने ही बच्चों की भाँति लाड़-प्यार से रखा – पराजित शत्रु पर कभी वार नहीं किया । मैंनें स्वधर्म का उल्लंघन नहीं किया धर्मदासजी । माताजी के दूध को कभी लजाया नहीं धर्मदासजी |”
“…. मैंनें शत्रु को कभी विश्राम नहीं करने दिया और न कभी मैं विश्राम से सोया। नींद मैंनें घोड़े की पीठ पर ही ली, बाटी मैंनें भाले से घोड़े की ही पीठ पर से सेकी और खाई उसे घोड़े की ही पीठ पर । मैंनें राजस्थान के प्रत्येक वन, पहाड़, नदी, नाले, पर्वत और घाटी को छान डाला पर कर्त्तव्य की भावना को कभी ओझल नहीं होने दिया धर्मदासजी । माताजी के दूध को कभी लजाया नहीं धर्मदासजी ।’

इतना कह कर दुर्गादास जी ने तीन बार हरि ओम तत्सत् का उच्चारण किया और एक जंभाई ली । धर्मदास जी ने कहा -“आप मारवाड़ के ही नहीं भारत के सपूत हैं दुर्गादास जी । वह जननी बड़ी भाग्यशालिनी है जिसने आप जैसे नर-रत्न को जन्म दिया है |”
“पर अब मैं उसके दूध को लजा रहा हूँ धर्मदासजी ॥“

“हैं ! यह आप क्या कह रहे हैं दुर्गादास जी ? आपका कोई कार्य ऐसा नहीं है जो शास्त्र, धर्म, मयदिा और कर्त्तव्य के विरूद्ध हो ।’
“हैं धर्मदासजी ! माताजी मुझे भीष्मजी की कहानी सुनाया करती थी और कहा करती थीं कि आदर्श क्षत्रिय वही है जिसे भीष्मजी की सी मृत्यु प्राप्त होने का सौभाग्य हो । वे शैया की मृत्यु को कायर की मृत्यु कहा करती थी और आज मैं तृण-शैया पर कायर की भाँति प्राण त्याग रहा हूँ । क्या यह उनके दूध को लजाने के लिए पर्याप्त नहीं है धर्मदास जी ?’
“शास्त्रों में इस प्रकार की मृत्यु .. ॥“ “शास्त्रों के नहीं, वर्तमान अवसर के अनुसार यह मृत्यु वीरोचित नहीं है ।’
अन्तिम शब्द दुर्गादास जी ने कुछ ऊँचे स्वर से कहे थे। अपने स्वामी का स्वर सुन कर कुटिया के सामने बँधा हुआ घोड़ा जोर से हिनहिना उठा । स्वामी की रूग्णावस्था का अनुमान लगा कर उस मूक पशु ने तीन दिन से दाना-पानी और घास बिल्कुल छोड़ दिया था । निरन्तर उसकी आँखों से आँसू टपक रहे थे । उसकी हिनहिनाहट सुन कर दुर्गादासजी को उसकी स्वामी-भक्ति और कृतज्ञता का स्मरण हो उठा । उनके विशाल नेत्रों में से भी कृतज्ञता का स्त्रोत फूट पड़ा और उनकी श्वेत दाढ़ी में मोतियों का रूप धारण कर उलझ गया । दोनों की आत्मा का अन्तर दूर हो गया । दोनों ने मूक रहते हुए ही एक दूसरे की भावना और विवशता को समझ लिया ।
“धर्मदासजी मेरे घोड़े पर जीन कराइए। मैं आज मृत्यु से युद्ध करूँगा । इस शैया पर आकर वह मुझे दबोच नहीं सकती ।’

यह कहते हुए दुर्गादास जी एक बालक की-सी स्फूर्ति से उठे और कवच तथा अस्त्रशस्त्र बाँधने लगे । चरणदास ने गुरू की आज्ञा पाकर तत्काल ही घोड़ा तैयार कर दिया । दुर्गादासजी ने धर्मदासजी के चरणों पर श्रद्धा सहित प्रणाम किया और वे उसी स्फूर्ति सहित घोड़े पर जा सवार हुए । धर्मदास जी भली भाँति जानते थे कि दुर्गादास जी अब इस संसार में कुछ ही घड़ियों के मेहमान हैं पर उस समय उनके मुख मण्डल पर व्याप्त अद्भुत तेजस, प्रकाश और लालिमा को देख कर उनको रोकने का उन्हें साहस न हुआ। “बुझने के पहले दीपक की लौ की भभक है यह ।“ उन्होंने मन ही मन गुनगुनाया ।
इधर प्राची में भगवान मार्तण्ड अपने सहस्त्रों करों द्वारा उदयाचल पर आरूढ़ हुए, उधर जोधपुर दुर्ग में नक्कारे और शहनाइयाँ बज उठी । सुरा, सुन्दरी और सुगन्धि की उपस्थिति विगत रात्रि के महोत्सव की सूचना दे रही थी । मारवाड़ के उद्धार की ऐतिहासिक स्मृति के उपलक्ष में आयोजित महोत्सव-श्रृंखला में उस रात का महोत्सव सर्वोत्तम था । मारवाड़ के स्वातन्त्र्य संग्राम में लड़ने वाले योद्धाओं को जी खोल कर इनाम, जागीरें और ताजीमें दी गई और उसी समय क्षिप्रा नदी के किनारे राठौड़ वंश का उद्धारक, मारवाड़ राज्य का पुनर्सस्थापक निर्धन, निर्जन और असहाय अवस्था में जननी जन्म-भूमि से सैंकड़ों कोस दूर निर्वासित होकर मृत्यु से अन्तिम युद्ध की तैयारी में तल्लीन था । न उसके मुख पर क्लेश था, न पश्चाताप और न शोक । सुदूर प्राची में आकाश का सूर्य उदय हो। रहा था और दूसरी ओर जोधपुर से सैकड़ों कोस दूर निर्जन एकान्त में राठौड़ वंश का सूर्य सदैव के लिए अस्त हो रहा था । अपने जीवन में उस दिन कृतघ्नता सबसे अधिक हँसी, खेली और कूदी, जिसके पाद प्रतिघातों से आक्रान्त होकर उन्नत-लहर क्षिप्रा शरदकालीन शान्त प्रवाह में अपने गौरवशाली अस्तित्व को परिव्याप्त करते हुए सदैव के लिए व्याप्त हो गई ।
प्रातःकाल वालों ने देखा कि भूमि में भाला गाड़े हुए समाधिस्थ योगी की भाँति घोड़े की पीठ पर एक वृद्ध योद्धा बैठा था, न वह हिलता था और न किसी प्रकार की चेष्टा ही करता था । घोड़े की निस्तेज आँखों में से निरन्तर टप-टप आँसू टपक रहे थे, पर हिलता वह भी नहीं था। धर्मदासजी की कुटिया पर यह संवाद पहुँचते ही तत्काल वे वहाँ पर पहुँच गए, देखा –
घोड़े की पीठ पर से बाटी सेकने वाला और उसी पर निद्रा लेने वाला आज उसी की पीठ पर बैठ कर महानिद्रा की गोद में सो गया है। उनके मुँह से इतना ही निकल पड़ा –
“धन्य है दूध की लाज’ और दूसरे ही क्षण वे बच्चों की भाँति फूटकर रो पड़े।

लेखक : स्व.आयुवान सिंह शेखावत, हुडील










Tuesday, 5 December 2017

पूज्य श्री आयुमान सिंह जी द्वारा लिखित माँ पद्मिनि के जौहर की कहानी


इतने में पुरोहित ने आकर सूचना दी – माताजी सूर्योदय होने वाला है; चिता-प्रवेश का यही शुभ समय है । माता तुरन्त वहाँ से उठ खड़ी हुई और चिता के पास आकर खड़ी हो गई । गोरा फूट-फूट कर रोने लगा । पुरोहित ने सांत्वना बंधाते हुए कहा – “गोराजी किसके लिए अज्ञानी पुरूष की भाँति शोक करते हो । क्योंकि –

’’न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||’’

अब गोरा ने अपने को सम्भाला । उसने अपनी स्त्री और बालकों सहित माँ की परिक्रमा की । माता ने उनका माथा सूघा और आशीर्वाद दिया।

“शीघ्रता करिए। पुरोहित ने चिता पर गंगाजल छिड़कते हुए कहा ।

वृद्धा ने तीन बार चिता की परिक्रमा की और फिर प्राची में उदित होते हुए सूर्य को नमस्कार किया और प्रसन्न मुद्रा में वह चिता पर चढ़कर बैठ गई । उसने अपने मुँह में गंगाजल, तुलसी-पत्र और थोड़ा सा स्वर्ण रखा और ब्राह्मणों को भूमिदान करने का संकल्प किया ।

गोरा ने कहा – ‘‘अन्तिम प्रार्थना है माँ ! स्वर्ग में मेरे लिए अपनी सुखद गोद खाली रखना और यदि संसार में जन्म लेने का अवसर आए तो जन्म-जन्म में तू मेरी माता और मैं तेरा पुत्र होऊँ ।’

माता ने हाथ की उंगली ऊपर कर ईश्वर की ओर संकेत किया और “मेरे दूध की लज्जा रखना बेटा ।’’ कह कर आँखें बन्द कर ध्यानमग्न हो गई । पुरोहित ने वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ अग्नि प्रज्जवलित की । गोरा ने देखा स्वर्णिम लपटों से गुम्फित उसकी माता कितनी दैदीप्यमान लग रही थी । देवताओं के यज्ञ-कुण्ड में से प्रकटित जग-जननी दुर्गा के तुल्य उसने ज्वाला-परिवेष्ठित अपनी माता के मातृ स्वरूप को मन ही मन नमस्कार किया और आत्मा की अमरता का प्रतिपादन करता हुआ गुनगुना उठा –

’ ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’

पुरोहित ने चिता में शेष घृत को छोड़ते हुए श्लोक के दूसरे चरण को पूरा किया‘‘न चैनं कलेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः ।।’

गोरा ने कर्त्तव्य के एक अध्याय को समाप्त किया और वह दूसरे की तैयारी में जुट पड़ा । अलसाए हुए नेत्रों सहित वह उत्तरी चिता के जाकर खड़ा हो गया । पंवारजी ने चंवरी के समय के अपने वस्त्र निकाले, उन्हें पहना, माँग में सिन्दूर भरा, आँखों में काजल लगाया और वह नवदुल्हन सी सजधज कर घर के बाहर आ गई । उसने बीजल का हाथ पकड़ते हुए मीनल को गोरा की गोद में देते हुए मुस्करा कर कहा –
“लो सम्हालो अपनी धरोहर, मैं तो चली।“ गोरा ने बीजल की अंगुली पकड़ ली और मीनल को अपनी गोद में बैठा लिया । उसने देखा पंवारजी आज नव-दुलहन से भी अधिक शोभायमान हो रही थी । वह प्रसन्न मुद्रा में थी और उसके चेहरे पर विषाद की एक भी रेखा नहीं थी । गोरा ने मन ही मन सोचा – ‘‘मैंने इस देवी की सदैव अवहेलना की है। इसका अपमान किया है । अन्तिम समय में थोड़ा पश्चाताप तो कर लूं ॥“

गोरा ने कहा – ‘‘अन्तिम प्रार्थना है माँ ! स्वर्ग में मेरे लिए अपनी सुखद गोद खाली रखना और यदि संसार में जन्म लेने का अवसर आए तो जन्म-जन्म में तू मेरी माता और मैं तेरा पुत्र होऊँ ।’

माता ने हाथ की उंगली ऊपर कर ईश्वर की ओर संकेत किया और “मेरे दूध की लज्जा रखना बेटा ।’’ कह कर आँखें बन्द कर ध्यानमग्न हो गई । पुरोहित ने वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ अग्नि प्रज्जवलित की । गोरा ने देखा स्वर्णिम लपटों से गुम्फित उसकी माता कितनी दैदीप्यमान लग रही थी । देवताओं के यज्ञ-कुण्ड में से प्रकटित जग-जननी दुर्गा के तुल्य उसने ज्वाला-परिवेष्ठित अपनी माता के मातृ स्वरूप को मन ही मन नमस्कार किया और आत्मा की अमरता का प्रतिपादन करता हुआ गुनगुना उठा –


उसने कहा – ‘‘पंवारजी मैंनें तुम्हे बहुत दुःख दिया है । क्या अन्तिम समय में मेरे अपराधों को नहीं भूलोगी ।’ “यह क्या कहते हैं नाथ आप । मैं तो आपके चरणों की रज हूँ और सदैव आपके चरणों की रज ही रहना चाहती हूँ । परसों गौरी-पूजन (गणगौर) के समय भी मैंनें भगवती से यही प्रार्थना की थी कि वह जन्म-जन्म में आपके चरणों की दासी होने का सौभाग्य प्रदान करें |”

“पंवारजी मैंनें आज अनुभव किया कि तुम स्त्री नहीं साक्षात् देवी हो।

“सो तो हूँ ही । परम सौभाग्यवती देवी हूँ इसलिए पति की कृपा की छाया में स्वर्ग जा रही हूँ ।’ यह कह कर पंवार जी तनिक सी मुस्कराई और फिर बोल उठी –

“इस घर में आपके पीछे होकर आई पर स्वर्ग में आगे जा रही हूँ । क्यों नाथ ! मैं बड़ी हुई या आप ?’

परिस्थितियों की इस वास्तविक कठोरता के समय किये गये इस व्यंग से गोरा में किंचित् आत्महीनता की भावना उदय हुई उसके मानस प्रदेश पर भावों का द्वन्द्व मच गया और उसकी वाणी कुण्ठित हो गई ।

इसके उपरान्त पंवारजी आगे बढी । उसने बीजल और मीनल को चूमा, उनके माथों पर प्यार का हाथ फेरा । स्वामी की परिक्रमा की, उसके पैर छुए और वह बोली –

“नाथ ! स्वर्ग में प्रतीक्षा करती रहूँगी, शीघ्र पधार कर इस दासी को दर्शन देना । स्वर्ग में मैं आपके रण के हाथों को देखेंगी । देखेंगी आप किस भाँति मेरे चूड़े का सम्मान बढ़ाते हैं ।’’

गोरा ने सोचा – “ये अबला कहलाने वाली नारियाँ पुरूषों से कितनी अधिक साहसी, धैर्यवान और ज्ञानी होती हैं। इस समय के साहस और वीरत्व के समक्ष युद्धभूमि में प्रदर्शित साहस और वीरत्व उसे अत्यन्त ही फीके जान पड़े | उसने पहली बार अनुभव किया कि नारी पुरूषों से कहीं अधिक श्रेष्ठ होती हैं । अब उसके साहस, धैर्य और वीरता का गर्व गल चुका था । वह बोल उठा –

पंवारजी तुमने अन्तिम समय में मुझे परास्त कर दिया। मैं भगवान सूर्य की साक्षी देकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम्हारे चूड़े के सम्मान को तनिक भी ठेस नहीं पहुँचने ढूँगा।” बोली पंवारजी ने सब शास्त्रीय विधियों को पूर्ण किया और फिर पति से हाथ जोड कर बोली- “नाथ मैं चिता में स्वयं अग्नि प्रज्जवलित कर दूँगी। आप मोह और ममता की फॉस इन बच्चों को लेकर थोड़े समय के लिए दूर पधार जाइये।” गोरा मन्त्र मुग्ध सा –

‘‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’

गुनगुनाता हुआ दोनों बालकों को गोद में उठाकर घर के भीतर चला गया ।

“दादीसा जल क्यों गए पिताजी ? बीजल ने उदास मुद्रा में पूछा ।

“दादीसा भगवान के पास चली गई है बेटा।”
‘‘हम लोग क्यों नही चलते ।’’

“अभी थोड़ी देर बाद चलेंगे बेटा।’

गोरा ने अपने पुत्र के भोले मुँह को देखा । वह उसकी जिज्ञासा को किन शब्दों में शान्त करे, यह सोच नहीं सका । इतने में “भाभू जाऊँ , भाभू जाऊँ “ कह कर मीनल मचल उठी और उसने गोरा की गोद से कूद कर माता के पास जाने के लिए अपने नन्हें से दोनों पैरों को नीचे लटका दिया|

गोरा ने मचलती हुई मीनल के चेहरे को देखा । उसे उसका निर्दोष, भोला और करूण मुख अत्यन्त ही भला जान पड़ा ।

वह आंगन में रखी चारपाई पर बैठ गया और उसने पुत्र और पुत्री को दोनों हाथों से वक्षस्थल से चिपटा लिया । वात्सल्य की सरिता उमड़ चली । वह सोचने लगा – “किस प्रकार अपने हृदय के टुकड़ों को अपने ही हाथों से अग्नि में फेंकूं ? हाय ! मैं कितना अभागा हूँ, लोग सन्तान प्राप्ति के लिये नाना प्रकार के जप-तप करते और कष्ट उठाते हैं पर मैं आप, अपने सुमन से सुन्दर सुकुमार और निर्दोष बच्चों के स्वयं प्राण ले रहा हूँ। मैं सन्तानहत्यारा नहीं बनूंगा, चाहे म्लेच्छ इन्हें उठाकर ले जायें पर अपने हाथों इनका वध नहीं करूँगा ।’’

इतने में “भाभू जाऊँ , भाभू जाऊँ “ कह कर मीनल मचल उठी ।

गोरा उन बालकों को गोदी में उठा कर छत पर ले गया । उसने देखा – ‘‘धॉयधाँय कर सैकड़ों चिताएँ जल रही थी । उनमें न मालूम कितने इस प्रकार के निर्दोष बालकों को स्वाहा किया गया था । उसने देखा मुख्य जौहर-कुण्ड से निकल रही भयंकर अग्नि की लपटों ने दिन के प्रकाश को भी तीव्र और भयंकर बना दिया था ।

“हा, महाकाल ! मुझसे यह जघन्य कृत्य मत करा। हा, देव ! इतनी कठोर परीक्षा तो हरिशचन्द्र की भी नहीं ली थी ।’ कहता हुआ गोरा बालकों का मुँह देख कर रो पड़ा । पिता का हृदय था, द्रवित हो बह चला ।

उसने फिर पूर्व की ओर दृष्टिपात किया । उसकी दृष्टि सुल्तान के शिविर पर गई । उसका रोम-रोम क्रोध से तमक उठा । प्रतिहिंसा की भयंकर ज्वाला प्रज्जवलित हो उठी । द्रवित हृदय भी उससे कुछ कठोर हुआ । उसने सोचा –

“मैं क्यों शोक कर रहा हूँ । मुझे तो अपने सौभाग्य पर गर्व करना चाहिए ।“ उसे अपनी माता और पत्नी का चिता-प्रवेश और उपदेश स्मरण हो आया । ‘
‘मैं अपने इन नौनिहालों को सतीत्व और स्वतंत्रता रूपी स्वधर्म की बलि पर चढ़ा रहा हूँ । वास्तव में मैं भाग्यवान हूँ ।’

वह तमक कर उठ बैठा और बच्चों को गोदी में उठा कर कहने लगा- “चलो तुम्हें अपनी भाभू के पास पहुँचा आऊँ ‘,

’’नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’



गुनगुनाता हुआ वह पंवारजी की चिता के पास बालकों को लेकर चला आया । चिता इस समय प्रचण्डावस्था में धधक रही थी । गोरा ने अपने हृदय को कठोर किया और भगवान का मन में ध्यान किया । फिर अपना दाहिना पैर कुछ आगे करके वह दोनों बालकों को दोनों हाथों से पकड़ कर थोड़ा सा झुला कर चिता में फेंकने वाला था कि पुत्र और पुत्री चिल्ला कर उसके हाथ से लिपट गए । उन्होंने अपने नन्हें-नन्हें सुकोमल हाथों से दृढ़तापूर्वक उसके अंगरखे की बाँहों को पकड़ लिया और कातरता और करूणापूर्ण दृष्टि से टुकर-टुकर पिता के मुँह की ओर देखने लग गए । ऐसा लगा मानों अबोध बालकों को भी पिता का भीषण मन्तव्य ज्ञात हो गया था । उस समय इन बालकों की आँखों में बैठी हुई साकार करूणा को देखकर क्रूर काल का भी हृदय फट जाता । गोरा उनकी आँखों की प्रार्थना स्वीकार कर कुछ कदम चिता से पीछे हट गया । चिता की भयंकर गर्मी और भयावनी सूरत को देखकर मीनल अत्यन्त ही भयभीत हो गई थी; उसने भाभू जाऊँ, भाभू जाऊँ की रट भय के मारे बन्द कर दी । बीजल इस नाटक को थोड़ा बहुत समझ चुका था । उसने पिता से कहा –
“पिताजी ! मैं भी ललाई में तलँगा । मुझे आग में क्यों फेंकते हो?

ममता की फिर विजय हुई । गोरा ने उन दोनों बालकों को हृदय से लगा लिया । उनके सिरों को चूमा और सोचा, – “पीठ पर बाँध कर दोनों को रणभूमि में ही क्यों नहीं ले चलूं ?“ थोड़ी देर में विचार आया, – “ऐसा करने से अन्य योद्धा मेरी इस दुर्बलता और कायरता के लिए क्या सोचेंगे ?“ ये दो ही नहीं हजारों बालक आज भस्मीभूत हो। रहे हैं ।

वह फिर साहस बटोर कर उठा – अपने ही शरीर के दो अंशो को अपने ही हाथों आग में फेंकने के लिए । उसने हृदय कठोर किया, भगवान से बालकों के मंगल के लिए प्रार्थना की; अपने इस राक्षसी कृत्य के लिए क्षमा माँगी और मन ही मन गुनगुना उठा –
“हा क्षात्र-धर्म, तू कितना कूर और कठोर है ।“ बीजल नहीं पिताजी-नहीं पिताजी’ चिल्लाता हुआ उसके अंगरखे की छोर पकड़ कर चिपट रहा था, मीनल ने कॉपते हुए अपने दोनों नन्हें हाथ पिता के गले में डाल रखे थे । दोनों बालकों की करूणा और आशाभरी दृष्टि पिता के मुंह पर लगी हुई थी ।

गोरा ने ऑखें बन्द की और कर्त्तव्य के तीसरे अध्याय को भी समाप्त किया । अग्नि ने अपनी जिह्वा से लपेट कर दोनों बालकों को अपने उदर में रख लिया । ममता पर कर्त्तव्य की विजय हुई ।

गोरा पागल की भाँति लपक कर घर के भीतर आया । अब घर उसे प्रेतपुरी सा भयंकर जान पड़ा । वह उसे छोड़ कर बाहर भागना चाहता था कि सुनाई दिया –

“कसूमा का निमन्त्रण है, शीघ्र केसरिया करके चले आइए।’’

अब गोरा कर्त्तव्य का चौथा अध्याय पूर्ण करने जा रहा था । उसे न सुख था और न दु:ख, न शोक था और न प्रसन्नता । वह पूर्ण स्थितप्रज्ञ था । मार्ग में धू-धू करती हुई सैकड़ों चिताएँ जल रही थी । भुने हुए मानव माँस से दुर्गन्ध उठी और धुआँ ने उसे तनिक भी विचलित और प्रभावित नहीं किया । वह न इधर देखता था और न उधर, बस बढ़ता ही जा रहा था ।

समाप्त








माँ पद्मिनि के ममता भाग-2

पंवारजी दही के लिए हठ करती हुई अपनी तीन वर्षीया पुत्री मीनल को गोद में लेकर आई और बीजल को हाथ पकड़ कर घर के भीतर ले गई । “कितना सुन्दर और प्यारा बच्चा है । ठीक गोरा पर ही गया है । बची भी कितनी प्यारी है । जब वह तुतली बोली में मुझे दादीथा कह कर पुकारती है तो कितनी भली लगती है। कुछ ही क्षणों के बाद ये भी अग्निदेव के समर्पित हो जायेंगे । हाय ! मेरे गोरा का वंश ही विच्छेद हो जाएगा | एक गोरा का क्या आज न मालूम कितनों के वंश-प्रदीप बुझ रहे हैं । यह सोचते हुए वृद्धा की आँखों में फिर अश्रुधारा प्रकट हो गई । उसने बड़ी कठिनाई से अपने को सम्हाला; सुषुप्त आत्मबल का आह्वान किया और फिर नेत्र बन्द करके ईश्वर के ध्यान में निमग्न हो गई ।
गोरा अब तक यंत्रवत् सब कार्य करने में तल्लीन था । उसने अब तक न निकट भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं पर ही कुछ सोचा था और न अपने मन को ही किसी विकार से उद्वेलित किया था । पर जब जौहर-व्रत सम्बन्धी सम्पूर्ण व्यवस्था समाप्त हो गई तब उसने भाव रहित मुद्रा में प्राची की ओर देखा । उषाकाल प्रारम्भ होने ही वाला था । प्राची में उदित अरूणाई के साथ ही साथ उसे अपनी माता का स्मरण हो आया । उसे स्मरण हो आया कि एक घड़ी पश्चात् सूर्योदय होते ही उसकी पूजनीया वृद्धा माँ अग्निप्रवेश करेगी और वह पास खड़ा-खड़ा उस दृश्य को देखेगा । वह कठोर हृदय था, कूर स्वभाव का था, साहसी और वीर था पर उच्चकोटि का मातृभक्त भी था । अब तक कभी भी उसने माता की अवज्ञा नहीं की थी । माता भी उसे बहुत अधिक प्यार करती थी और वह भी माता का बहुत अधिक सम्मान करता था । पिता का प्यार उसे प्राप्त नहीं हुआ था, पर माता की स्नेह सिंचित शीतल गोद में लिपटकर ही वह इतना साहसी और वीर बना था । माता का अमृत तुल्य पय-पान कर ही उसने इतना बल-वीर्य प्राप्त किया था; उसकी ओजमयी वाणी से प्रभावित होकर उसने अब तक शत्रुओं का मान मर्दन किया था । उसके स्वास्थ्य, कल्याण और उसकी दीर्घायु के लिए उसकी माता ने न मालूम कितने ही व्रत-उपवास किये थे, कितने देवी-देवताओं से प्रार्थना की थी; यह सब गोरा को ज्ञात था । माता के कोटि-कोटि उपकारों से उसका रोम-रोम उपकृत और कृतज्ञ हो रहा था|
तीर्थों में गंगा सबसे पवित्र है, पर गोरा की दृष्टि में उसकी माता की गोद से बढ़ कर और कोई तीर्थ पवित्र नहीं था । उसके लिए मातृ-सेवा ही सब तीर्थ-स्नान के फल से कहीं अधिक फलदायी थी । माता गोरा के लिए आदि शक्ति योगमाया का ही दूसरा रूप है । वही उसके लिए विपत्ति के समय रक्षा का विधान करती और सुख के समय उसे खिलातीपिलाती और अपनी पवित्र गोद में लिपटाती । वही परम पवित्र माता कुछ ही क्षण पश्चात् चिता में प्रवेश कर भस्म हो जाएगी और भस्म इसलिए हो जायेगी कि गोरा जैसा निर्वीर्य पुत्र उसे बचा नहीं सकता । उसे अपने पुरुषार्थ पर लज्जा आई, विवशता पर क्रोध आया । उसने मन ही मन अपने आपको धिक्कारा – “मैं कितना असमर्थ हूँ कि आज अपनी प्राणप्रिय माताजी को भी नहीं बचा सकता ।
फिर उसे ध्यान आया -‘‘मेरी जैसी हजारों माताएँ आज चिता-प्रवेश कर रही हैं और मैं निर्लज्ज की भाँति खड़ा-खड़ा उन्हें देख रहा हूँ, अपने हाथों चिता में आग लगा रहा हूँ, धिक्कार है मेरे पुरूषार्थ को, धिक्कार है मेरे बाहुबल को और धिक्कार है मेरे क्षत्रियत्व को। गोरा उत्तेजित हो उठा और शत्रुओं पर टूट पड़ने के लिए कमर में टंगी हुई तलवार लेने के लिए झपट पड़ा । सहसा उसे ध्यान आया कि अभी तो जौहर-व्रत पूरा करवाना है। वह रुका और पूर्वी तिबारी में बैठी हुई माँ के चरणों में अन्तिम प्रणाम करने के लिए चल पड़ा ।
फिर उसे ध्यान आया -‘‘मेरी जैसी हजारों माताएँ आज चिता-प्रवेश कर रही हैं और मैं निर्लज्ज की भाँति खड़ा-खड़ा उन्हें देख रहा हूँ, अपने हाथों चिता में आग लगा रहा हूँ, धिक्कार है मेरे पुरूषार्थ को, धिक्कार है मेरे बाहुबल को और धिक्कार है मेरे क्षत्रियत्व को। गोरा उत्तेजित हो उठा और शत्रुओं पर टूट पड़ने के लिए कमर में टंगी हुई तलवार लेने के लिए झपट पड़ा । सहसा उसे ध्यान आया कि अभी तो जौहर-व्रत पूरा करवाना है। वह रुका और पूर्वी तिबारी में बैठी हुई माँ के चरणों में अन्तिम प्रणाम करने के लिए चल पड़ा ।

गोरा ने अत्यन्त ही भक्तिपूर्वक ईश्वर ध्यान में निमग्न माता को चरण छूकर प्रणाम किया । माता ने पुत्र को देखा और पुत्र ने माता को देखा । दोनों ओर से स्नेह-सरितायें उमड़ पड़ी । गोरा अबोध शिशु की भाँति माता की गोद में लेट गया । उसका पत्थर तुल्य कठोर हृदय भी माता की शीतल गोद का सान्निद्य प्राप्त कर हिमवत् द्रवित हो चला । माता ने अपना सर्वसुखकारी स्नेहमय हाथ गोरा के माथे पर फेरा और कहने लगी ।

“गोरा तुम्हारा परम सौभाग्य है । स्वतंत्रता, स्वाभिमान, कुल-मर्यादा और सतीत्व रूपी स्वधर्म पर प्राण न्यौछावर करने का सुअवसर किसी भाग्यवान क्षत्रिय को ही प्राप्त होता है। तुमन आज उस दुर्लभ अवसर को अनायास ही प्राप्त कर लिया है । ऐसे ही अवसरों पर प्राणोत्सर्ग करने के लिए राजपूत माताएँ पुत्रों को जन्म देती है । वास्तव में मेरा गर्भाधान करना और तुम जैसे पुत्र को जन्म देना आज सार्थक हुआ है । बेटा, उठ ! यह समय शोक करने का नहीं है ।’ कहते हुए माता ने बड़े ही स्नेह से गोरा के आँसू अपने हाथों से पोंछे ।

मातृ-प्रेम में विह्वल गोरा पर इस उपदेश का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा । उसकी आँखों का बाँध टूट गया । वह अबोध शिशु की भाँति माता से लिपट गया । रण में शत्रुओं के लिए महाकाल रूपी गोरा आज माता की गोद में दूध-मुँहा शिशु बन गया था । कौन कह सकता था कि क्रूरता, कठोरता, रूद्रता और निडरता की साक्षात् मूर्ति, माँ की गोद में अबोध शिशु की भाँति सिसकियाँ भरने वाला यही गोरा था ।

माता ने अपने दोनों हाथों के सहारे से गोरा को बैठाया । वह फिर बोली – ‘‘बेटा! तुझे अभी बहुत काम करना है । मुझे जौहर करवाना है, फिर बहू को सौभाग्यवती बनाना है और बच्चों को भी ….. | यह कहते-कहते वात्सल्य का बाँध भी उमड़ पड़ा, पर उसने तत्काल ही अपने को सम्हाल लिया । वह आगे बोल उठी – ‘‘तेरा इस समय इस प्रकार शोकातुर होना उचित नहीं । तेरी यह दशा देख कर मेरा और बहू का मन भी शोकातुर हो जाता है । पवित्र जौहर-व्रत के समय स्त्रियों को विकारशून्म मन से प्रसन्नचित्त हो चिता में प्रवेश करना चाहिए तभी जौहर-व्रत का पूर्ण फल मिलता है, नहीं तो वह आत्महत्यातुल्य निकृष्ट कर्म हो जाता है

आगे भाग-3 में......

Thursday, 30 November 2017

पूज्य श्री आयुमान सिंह जी द्वारा लिखित पद्मिनी के जोहार की कहानी ममता और कर्तव्य भाग :-1

विक्रम संवत् 1360 के चैत्र शुक्ला तृतीया की रात्रि का चतुर्थ प्रहर लग चुका था । वायुमण्डल शांत था । अन्धकार शनैः शनैः प्रकाश में रूपान्तरित होने लग गया था । बसन्त के पुष्पों की सौरभ भी इसी समय अधिक तीव्र हो उठी थी । यही समय भक्तजनों के लिए भक्ति और योगियों के लिए योगाभ्यास द्वारा शान्ति प्राप्त करने का था । सांसारिक प्राणी भी वासना की निवृत्ति उपरांत इसी समय शान्ति की शीतल गोद में विश्राम ले रहे थे । चारों ओर शान्ति का ही साम्राज्य था । ठीक इसी समय पर चित्तौड़ दुर्ग (Chittorgarh) की छाती पर सैकड़ों चिताएँ प्रदीप्त हो उठी थी । चिर शान्ति की सुखद गोद में सोने के लिए अशान्ति के महाताण्डव का आयोजन किया जा रहा था । और ठीक इसी ब्रह्म मुहूर्त में विश्व की मानवता को स्वधर्म-रक्षा का एक अपूर्व पाठ पढ़ाया जाने वाला था । उस पाठ का आरम्भ धू-धू कर जल रही सैकड़ों चिताओं में प्रवेश (Johar of Chittorgarh) करती हुई हजारों ललनाओं के आत्मोसर्ग के रूप में हो गया था ।

“मैं सूर्य-दर्शन करने के उपरान्त शास्त्रोक्त विधि से चिता में प्रवेश करूँगी। अपने पुत्र गोरा को उसकी वृद्ध माताजी ने अपने पास बुलाते हुए कहा ।
“जो आज्ञा माताजी।’ कह कर गोरा आवश्यक सामग्री जुटाने के लिए घर से बाहर निकलने लगा ।
‘‘और मैं माताजी का जौहर दर्शन करने के उपरान्त चिता-प्रवेश करूँगी |”
गोरा ने मुड़ कर देखा – पंवारजी माताजी को स्नान कराने के लिए जल का कलश ले जाते हुए कह रही थी । यदि कोई ओर समय होता तो उद्दण्ड गोरा अपनी स्त्री के इस आदेशात्मक व्यवहार को कभी सहन नहीं करता पर वह दिन तो उसकी संसार-लीला का अन्तिम दिन था । कुछ ही घड़ियों पश्चात् उसकी माता और स्त्री को अग्नि-स्नान द्वारा प्राणोत्सर्ग करना था और उसके तत्काल बाद ही गोरा को भी सुल्तान अलाउद्दीन की असंख्य सेना के साथ युद्ध करते हुए ‘धारा तीर्थ में स्नान करना था । इसीलिए असहिष्णु गोरा ने मौन स्वीकृति द्वारा स्त्री के अनुरोध का भी आज पालन कर दिया था । वह एक के स्थान पर दो चिताएँ तैयार कराने में जुट गया ।
थोड़ी देर में दो चिता सजा कर तैयार कर दी गई । उनमें पर्याप्त काष्ठ, घृत, चन्दन, नारियल आदि थे । एक चिता घर के पूर्वी आंगन में और दूसरी घर के उत्तरी अहाते की दीवार से कुछ दूर, वहाँ खड़े हुए नीम के पेड़ को बचाकर तैयार की गई थी । विधिवत् अग्निप्रवेश करवाने के लिए पुरोहितजी भी वहाँ उपस्थित थे ।
गोरा की माँ ने पवित्र जल से स्नान किया, नवीन वस्त्र धारण किए, हाथ में माला ली और वह पूर्वाभिमुख हो, ऊनी वस्त्र पर बैठकर भगवान का नाम जपने लगी । गत पचास वर्षों के इतिहास की घटनायें एक के बाद एक उस वृद्धा के स्मृति-पटल पर आकर अंकित होने लगी । उसे स्मरण हो आया कि पहले पहल जब वह नववधू के रूप में इस घर में आई थी, उसका कितना आदर-सत्कार था । गोरा के पिताजी उसे प्राणों से अधिक प्यार करते थे । वे युद्धाभियान के समय द्वार पर उसी का शकुन लेकर जाते थे और प्रत्येक युद्ध से विजयी होकर लौटते थे । विवाह के दस वर्ष उपरान्त अनेकों व्रत और उपवास करने के उपरान्त उसे गोरा के रूप में पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ था। । उस दिन पति-पत्नी को कितनी प्रसन्नता हुई थी, कितना आनन्द और उत्सव मनाया गया था। । गोरा के पिताजी ने उस आनन्द के उपलक्ष में एक ही रात में शत्रुओं के दो दुर्ग विजय कर लिए थे ।
अभी गोरा छः महीने का ही हुआ था कि सिंह के आखेट में उनका प्राणान्त हो गया था । वह उसी समय सती होना चाहती थी पर शिशु के छोटे होने के कारण वृद्ध जनों ने उसे आज्ञा नहीं दी । फिर गोरा बड़ा होने लगा। । वह कितना बलिष्ठ, उद्दण्ड, साहसी और चपल था उसने केवल बारह वर्ष की आयु में ही एक ही हाथ के तलवार के वार से सिंह को मार दिया था। और सोलह वर्ष की अवस्था में कुछ साथियों सहित बड़ी यवन सेना को लूट लाया था । इसके उपरान्त वृद्धा ने अपने मन को बलपूर्वक खींच कर भगवान में लगा दिया ।
कुछ क्षण पश्चात् उसे फिर स्मरण आया कि आज से बीस वर्ष पहले उसके घर में नववधू आई थी| वह कितनी सुशीला, आज्ञाकारिणी और कार्य दक्ष है| आज भी जब वह मुझे स्नान करा रही थी तो किस प्रकार उसकी आँखें सजल उठी थी| गोरा के उद्दण्ड और क्रोधी स्वभाव के कारण उसे कभी भी इस घर में पति-सम्मान नहीं मिला| फिर भी वह उसकी सेवा में कितनी तन्मय और सावधान रहती है| वृद्धा ने फिर अपने मन को एक झटका सा देकर सांसारिक चिन्तन से हटा लिया और उसे भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में लगा दिया । वह ओम नमो भगवते वासुदेवाय’ मन्त्र को गुनगुनाने लगी ।
कुछ क्षण पश्चात् फिर उसे स्मरण आया कि राव रतनसिंह, महारानी पद्मिनी और रनिवास की अन्य ललनायें उसका कितना अधिक सम्मान करती हैं महारानी पद्मिनी की लावण्यमयी सुकुमार देह, उसके मधुर व्यवहार और चित्तौड़ दुर्ग पर आई इस आपति का उसे ध्यान हो आया । उसने आँखें उठा कर प्राची की ओर देखा और नेत्रों से दो जल की बूंदें गिर कर उनके आसन में विलीन हो गई |
इतने में उसका पंचवर्षीय पौत्र बीजल नीद से उठ कर दौड़ा-दौड़ा आया और सदैव की भाँति उसकी गोद में बैठ गया ।
“आज दूसरे घरों में आग क्यों जल रही है दादीसा ? बीजल ने वृद्धा के मुँह पर अपने दोनों हाथ फेरते हुए पूछा । वृद्धा ने उसे हृदय से लगा लिया उसके धैर्य का बाँध टूट पड़ा, नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित हुई और उसने बीजल के सुकुमार सिर को भिगो दिया । बीजल अपनी दादी के इस विचित्र व्यवहार को बिल्कुल नहीं समझा और वह मुँह उतार कर फिर बैठ गया ।
वृद्धा ने मन ही मन कहा – ‘‘इसे कैसे बताऊँ कि अभी कुछ ही देर में इस घर में भी आग जलने वाली है जिसमें मैं, तुम्हारी माता और तुम सभी –“ वृद्धा की हिचकियाँ बन्ध गई । उसने अपनी बहू को आवाज दी – ‘‘बीजल को ले जा ?’ वह मेरे मन को अन्तिम समय में फिर सांसारिक माया में फँसा रहा है।’’

आगे भाग 2 में.............

Monday, 27 November 2017

फिल्म पद्मावती के विरोध का कारण

संजय लीला भंसाली द्वारा निर्मित पद्मावती फिल्म विवाद पर देश के स्वघोषित वामपंथी बुद्धिजीवी न्यूज चैनल्स पर अक्सर कहते मिल जायेंगे कि पद्मावती एक फिल्म ही तो है, इस पर विवाद कैसा? यही नहीं बहुत से बुद्धिजीवी इस मामले में राजनीति व सामाजिक संगठनों द्वारा वसूली भी कारण मानते है| हो सकता है इन बातों में कुछ सच्चाई हो, पर यह यह बात पक्की है कि इन बातों से इतर आम राजपूत की फिल्मों से भावनाएं आहत होती है| फिल्मों का आजतक का इतिहास रहा है- किसी भी फिल्म में एक ठाकुर होगा, वह अत्याचारी दिखाया जायेगा और आखिर हीरो द्वारा उसे घोड़े से घसीटता दिखाया जायेगा| यही बात सबसे ज्यादा राजपूतों को आहत करती है| क्योंकि स्थानीय जनता गांव के साधारण राजपूत को ही, भले वह किसान ही क्यों ना हो, ठाकुर ही समझा जाता है और जब फिल्म वाली बातकर उस पर लोग व्यंग्य करते है तब उसकी निश्चित ही भावनाएं आहत होती है और फिल्म निर्माता को वह अपना दुश्मन नंबर वन समझता है|

आपको बता दें इतिहास पर बनने वाली फ़िल्में राजपूतों की सबसे ज्यादा भावनाएं आहत करती है| इसका सीधा सा कारण है, हर राजपूत के कुछ पीढियों दूर के किसी पूर्वज ने शासन किया है| जिन ऐतिहासिक पात्रों पर फिल्म बनती है उससे आम राजपूत का खून का रिश्ता है| आज रानी पद्मिनी देश के बाकी नागरिकों के लिए बेशक एक रानी थी, लेकिन राजपूत के लिए माँ थी, हर राजपूत का किसी ना किसी तरह उससे या उसके परिवार से खून का रिश्ता है| ऐसे में कोई भी व्यक्ति अपनी माँ, दादी, नानी आदि के किसी फिल्म में उल्टे-सीधे दृश्य कैसे बर्दास्त कर सकता है| यही बात इन कथित स्वघोषित बुद्धिविजियों को समझ नहीं आती|

वर्षों से ठाकुर, सामंत के नाम पर आम राजपूत को फिल्मों में निशाना बनाये जाने को लेकर आम राजपूत के मन में गुस्सा भरा हुआ था, पर उसे अभिव्यक्ति का सही प्लेटफार्म नहीं मिल पा रहा था| अब सोशियल मीडिया के रूप में आम राजपूत युवा को अभिव्यक्ति का प्लेटफार्म मिल चुका है और वह इसी का प्रयोग कर फिल्म उद्योग के खिलाफ अपना रोष अभिव्यक्त कर रहा है| यही नहीं सोशियल मीडिया पर राजपूत युवाओं व बुद्धिजीवियों द्वारा चलाये जागरूकता अभियान का भी असर हुआ है कि अब राजपूत युवा संगठित हो रहे है और विरोध की अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बखूबी इस्तेमाल कर रहे है| अत: जो लोग यह समझते है कि ऐसी फ़िल्में पहले भी बनती आई, अब भी बन गई तो कौनसा पहाड़ टूट गया?

ऐसे लोगों के लिए एक जबाब है कि यह आवश्यक नहीं कि जो गलती पहले बर्दास्त कर ली गई, वह हमेशा बर्दास्त की ही जाएगी| इसका एक ही निवारण है- फिल्म में राजपूत पात्रों को विलेन दिखाना बंद किया जाय, इतिहास पर बनने वाली फिल्मों में राजपूत इतिहासकारों या सम्बन्धित पूर्व राजघराने से सहमति व ऐतिहासिक तथ्य लेकर फिल्म निर्माण किया जायेगा, तब ना किसी की भावनाएं आहत होगी, ना किसी फिल्म का विरोध होगा|

Monday, 13 November 2017

ये व्यक्ति था रानी पद्मिनी के जौहर का प्रत्यक्षदर्शी

कथित सेकुलर इतिहासकार, पत्रकार भंसाली के पक्ष में रानी पद्मिनी के इतिहास को काल्पनिक बताने के लिए भले कितनेही चिल्लाये पर पर यह नग्न सत्य है कि अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ कर आक्रमण किया था| चित्तौड़ लेने की उसकी मंशा बेशक
आर्थिक, राजनैतिक, कुटनीतिक थी| पर राघव चेतन द्वारा भड़काये जाने पर खिलजी की राजनैतिक महत्वाकांक्षा के साथ पाशविक पिपासा का पुट भी लग गया था, ऐसा इतिहास पढने पर आभास होता है| खिजली की चित्तौड़ आक्रमण के लिए सजी धजी सेना के साथ एक ऐसा व्यक्ति भी था, जो इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी था| इस व्यक्ति ने अपनी लेखनी के माध्यम से इतिहासकारों को कतिपय ऐतिहासिक सूत्र उपलब्ध कराएँ है, वो बात अलग है कि अलाउद्दीन खिलजी के डर से वह सब कुछ सीधा सीधा व सच नहीं लिख पाया और कथित सेकुलर गैंग उसकी इसी कमी को दरकिनार कर, उसके द्वारा इशारा किये तथ्यों को नजरअंदाज कर, रानी की कहानी को काल्पनिक प्रचारित करने का कुकृत्य कर रहे है|
जी हाँ ! हम बात कर रहे है खिलजी की सेना के साथ रहे प्रसिद्ध कवि व इतिहासकार अमीर खुसरो की| डा. गोपीनाथ शर्मा अपनी पुस्तक “राजस्थान का इतिहास” में इलियट, हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, भाग-3, पृ-76-77 का हवाला देते हुए लिखते है- “उसकी विद्यमानता में हमें आक्रमण की घटना के कतिपय सूत्र उपलब्ध होते है| वह लिखता है कि सुलतान ने गंभीरी और बेडच नदी के मध्य अपने शिविर की स्थापना की| इसके पश्चात् सेना के दाएं और बाएं पार्श्व से किले को दोनों ओर से घेर लिया| ऐसा करने से तलहटी की बस्ती भी घिर गई| स्वयं सुलतान ने अपना ध्वज चितौड़ नामक एक छोटी पहाड़ी पर गाड़ दिया और वहीं वह अपना दरबार लगता और घेरे के सम्बन्ध में दैनिक निर्देश देता था|”
डा. शर्मा अपनी शोध के बाद आगे लिखते है- “घेरा लम्बी अवधि तक चला| राजपूतों ने किले के फाटक बंद कर लिए और परकोटों से मोर्चा बनाकर शत्रु-दल का मुकाबला करते रहे| सुलतान की सेना ने मजनिकों से किले की चट्टानों को तोड़ने का आठ माह तक प्रयास किया| जब चारों ओर से सर्वनाश के चिन्ह दिखाई दे रहे थे, शत्रुओं से बचने का कोई उपाय नहीं दिखाई दे रहा था और किसी कीमत पर दुर्ग को बचाया नहीं जा सकता था|” हार की स्थिति में स्त्रियों के साथ भीषण व्याभिचार होना तय था| तब स्त्रियों व बच्चों को जौहर की धधकती अग्नि में अर्पण कर दिया गया| इस कार्य के बाद किले के फाटक खोल दिए गए और बचे हुए वीर शत्रु की सेना पर टूट पड़े और वीर गति को प्राप्त हुए|

डा. गोपीनाथ शर्मा की शोध पुस्तक में रानी पद्मिनी व खिलजी के आक्रमण पर जुटाए ऐतिहासिक तथ्य इरफ़ान हबीब जैसे इतिहासकारों के मुंह पर तमाचा है| पर इन बेशर्मों का एक ध्येय है किसी तरह भारतीय संस्कृति व स्वाभिमान पर चोट के लिए इतिहास का बिगाड़ा करो| रानी पद्मावती पर भंसाली का फिल्म निर्माण भी धन कमाने के साथ इसी वामपंथी एजेन्डे को आगे बढ़ाना है| यही कारण है कि देश का तथाकथित प्रगतिशील लेखक समुदाय, पत्रकार इस मुद्दे पर भंसाली के साथ खड़े है|

Thursday, 28 September 2017

ग्वालियर का प्रतिहार क्षेत्रीय वंश

-----> ग्वालियर का प्रतिहार क्षत्रिय वंश < ----- 


आज हम आप लोगो को ग्वालियर के प्रतिहार वंश एवं उनके संघर्ष की कहानी बतायेंगे। जब तुर्कों के आक्रमण से परिहार रानी तोंवरी देवी को जौहर करना पडा था। जिसमे उनके साथ 1500 से ऊपर राजपूत महिलाएं भी थी।।


ग्वालियर पर प्रतिहार क्षत्रियों ने लगभग 150 वर्ष शासन किया है। यहां के प्रतिहार कन्नौज के प्रतिहारो के सामंत के रुप मे कार्य करते थे और इन्ही के भाई परिवार थे। ग्वालियर पर नागभट्ट द्वितीय ने सन 795 ईस्वी मे ग्वालियर दुर्ग का निर्माण करवाया था। कुछ दिनो के बाद दुर्ग की हालत खराब हो रही थी तब सन 850 ईस्वी मे मिहिरभोज प्रतिहार ने ग्वालियर को अपने साम्राज्य कन्नौज की उपराजधानी बनाया और ग्वालियर दुर्ग को सजाया और संवारा। इस विशाल राजप्रसाद को बागों झरनों से सुसज्जित किया एवं रानियों के लिए अनेक बिहार स्थल भी बनवाये। मिहिरभोज के शासनकाल में उसका नाती किट्टपाल परिहार किले का रक्षक था।


सन 1036 ईस्वी में कन्नौज का सम्राट यशपाल था तभी महमूद गजनवी ने कन्नौज पर आक्रमण करके उसे नष्ट कर दिया। प्रतिहार लोग कन्नौज छोडकर " बारी " चले गये थे। इस संस्कृति काल का लाभ उठाकर राठौर चंद्रदेव ने कन्नौज के खंडहर मे अपना डेरा जमा लिया और प्रतिहार परिवार को वहां से भगा दिया। संयोगवश इस समय ग्वालियर दुर्ग की देखभाल इल्लभट्ट परिहार एवं कछवाह दूल्हाराय तेजकर्ण था। वह कन्नौज के इस सरदार परमादेव का मामा था। उसने प्रतिहारो को निराश्रित देखकर भांजे परमादेव को बारी जाने से रोक लिया और सपरिवार ग्वालियर दुर्ग में शरण दे दिया।। 


परमादेव हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाला नही था। उसने एक संगठित सेना बनाई सभी को एक किया। एक सुदृढ सैन्य संगठन हो जाने पर सन 1045 ईस्वी मे प्रतिहारों ने पुनः ग्वालियर पर अधिकार जमा लिया और अपने को राज्य का राजा घोषित कर दिया। विरोध करने वालो को राज्य से भगा दिया। सन 1193 के आस पास ग्वालियर तथा चंदेरी राज्य के अंतर्गत वेतवा नदी के पश्चिम का चंबल यमुना संगम से लेकर उत्तरी मालवा तक का क्षेत्र प्रतिहारों के आधीन था।


किंतु मुहम्मद बिन साम गोरी से प्रतिहारों का यह अधिकार देखा न गया तो उसने 1195 ईस्वी मे ग्वालियर दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। उस समय प्रतिहारो की सहायता करने वाला कोई न रहा तो उन्होने गोरी से समझौता कर लिया। समझौता होने पर भी गोरी ने ग्वालियर पर तुगरिल को बयाना का हाकिम बनाकर उसे ग्वालियर दुर्ग जीतने का आदेश देकर चला गया। इस प्रकार तुगररिल ने आस पास के गांवो को काफी दिन तक लूटा खसोटा। किंतु नटुल प्रतिहार के पौत्र तथा प्रताप सिंह के पौत्र विग्रह प्रतिहार से ग्वालियर की यह दुर्दशा देखी न गई उसने तुर्कों की संरक्षण टोली को ग्वालियर से खदेड कर भगा दिया।और 14 वर्ष के अंतराल से पुनः ग्वालियर पर अपनी सत्ता स्थापित की। विग्रह प्रतिहार और उसके भाई नरवर्मा की वंशावली दो ताम्रपत्रों से प्राप्त होती है। अतः 100 वर्षो की अवधि में परमादेव के वंशज विजयपाल,  वासुदेव , कर्णदेव और सारंगदेव आदि ने ग्वालियर राज्य का संचालन किया - इस वंश की वंशावली इस प्रकार है- 


ग्वालियर और नरवर के बीच चटोली ग्राम में सन 1150 ई. का एक शिलालेख मिला है। जिसमे रामदेव प्रतिहार उल्लेख है। यह रामदेव प्रतिहार ग्वालियर के अंतिम प्रतिहार राजा कर्णदेव के तृतीय पुत्र थे, जिन्हें बाद मे औरैया इलाका दिया गया। इसके पश्चात ग्वालियर गढ के गंगोलाताल के वि. सं. 1250 तथा 1251 के दो शिलालेख प्राप्त हुए है। जिनसे यह ज्ञात होता है की इन वर्षों में गढ पर जयपाल देव राज्य कर रहे थे। उन जयपाल देव की मुद्राएँ भी प्राप्त हुई है। हसन निजामी ने जिस सोलंखपाल का उल्लेख किया है वह इन्ही जयपाल के उत्तराधिकारी थे। जिसका वास्तविक नाम सुलक्षणपाल था एवं जिनका मुगल सम्राट शहाबुद्दीन के बीच युद्ध हुआ और शहाबुद्दीन ने ग्वालियर गढ को चारो ओर से घेर लिया। उसने यह अनुभव किया की सीधा आक्रमण करने से इस अभेद्य गढ को हस्तगत नही किया जा सकता इसके लिए बहुत दिनो तक गढ को घेरे रहना पडेगा। प्रतिहार राजा को त्रस्त करने के लिए मुगल सम्राट ने रसद पानी बंद करा दिया। हसन निजामी के ताजुल म आसिर के अनुसार - सुलक्षणपाल भयभीत और हताश हो गये तथा उन्होने संधि की चर्चा की और कर देने के लिए सहमत हो गये, दस हांथी उपहार में दिये गये। शहाबुद्दीन ने यह संधि स्वीकार कर ली और गजनी लौट गया। उसका सेनापति कुतुबुदीन ऐवक दिल्ली लौट गया और दूसरा सेनापति शहाबुद्दीन तुगरिल " त्रिभुवन गढ " चला गया।


उधर दिल्ली में भी इस काल मे भारी उथल पुथल मची थी। दिल्ली के सिंहासन पर कुतुबुद्दीन ऐवक बैठ गया। वह एक विलासी एवं मक्कार था। उसके हाथ मे प्रतिहार राजा सुलक्षणपाल ने ग्वालियर की सत्ता दे दी थी। जिससे कुतुबुद्दीन ऐवक तथाबहाउद्दीन तुगरिल के बीच मनमुटाव हो गया था। इसी मनमुटाव के कारण सन 1210 ई. में उसी के एक दास शमसुद्दीन इलतुमिश के हांथो हत्या करवा करवा दी गई और उसे स्वयं दिल्ली का सुल्तान बना दिया गया। उसे शासन से नही धन से मतलब था। इसीलिए सुल्तान बनते ही देश नगरों ग्रामों को लूटना प्रारम्भ कर दिया। उसको बताया गया की ग्वालियर दुर्ग मे बहुत धन संपदा है और उसने पहले ही तुर्को को मार भगाया, जो सुल्तान का शत्रु है।


अतः इलतुमिश ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। दिल्ली की भारी सेना के सामने राजपूत सेना बहुत कम थी, किंतु परिहार राजाओं ने न तो हथियार डाले और न ही शत्रु को किले मे घुसने दिया। प्रतिहारों की मोर्चा बंदी इतनी मजबूत थी की कभी - कभी सुल्तान को अपने सैनिकों को मौलवियों के भाषणों और उपदेशों से प्रोत्साहित करना पडता था। दृढ निश्चय के साथ किये जाने वाले युद्ध और सुल्तान के व्यक्तिगत नेतृत्व के कारण लगभग ग्यारह महीने तक इलतुमिश घेरा डाले रहा परंतु किले में घुसने मे सफल नहीं हो पाया। अंत में उसने चालबाजी करने की सोची रात्रि के अंधेरे में वह दुर्ग के पश्चिम की ओर से अंतरी बनाकर घुसा और वहीं से चोरों की भांति दुर्ग में सैनिकों को उतार दिया। चोरों ने दुर्ग का दक्षिणी भाग भी खोल दिया। दुर्ग के अंदर भयानक मारकाट भोर होते तक चली राजपूती सेना बाहर से आ गई सुल्तान भाग निकला। रात में कैद किये सैनिकों व महिलाओं को दुर्ग से निकाला जा चुका था। और इनमें 400 राजपूत और 200 महिलायें थी जिन्हें सुल्तान ने कत्ल करवा दिया।


सुल्तान का दूसरा आक्रमण भी विफल रहा। ग्वालियर के परिहारों ने ग्वालियर गढ प्राप्त करने का प्रयास किया। कुरैठा के वि. सं. 1277 ई. के ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि उस समय ग्वालियर गढ पर विग्रहराज जो कर्णदेव का बडा पुत्र सारंगदेव (मलयवर्मन) ग्वालियर का राजा था, वह बडा नीतिज्ञ था। सुल्तान का तीसरा और अंतिम आक्रमण 12 दिसंबर 1232 को हुआ। मलयवर्मन ने देश पर आई आपदा का मान अन्य राजाओं को कराया। उसके आह्वान पर यदुवंशी,  तोमर , सिकरवार, और सूर्यवंशी राजाओ ने एकत्र होकर एक सुगठित सेना बनाई। इस सेना और दिल्ली की तुर्क सेना के मध्य ग्यारह माह तक भीषण संग्राम चलता रहा। तुर्क सेना लाख से भी उपर थी - उसने सारा ग्वालियर घेर लिया था। और चारो ओर से दुर्ग के लिए रसद पानी  बंद करवा दिया था। राजपूती सेना दिन - ब - दिन घटती जा रही थी। उधर मेरठ , आगरा , दिल्ली , कानपुर, से धन और जन दोनों आ रहे थे , किंतु फिर भी परिहारों की स्थिति काफी जर्जर होती जा रही थी। अब युद्ध अवसान की ओर जा रहा था।


अंत में 20 नवंबर 1233 ई. को ग्वालियर महारानी तोंवरीदेवी ने क्षत्रियों को अंतिम समर मे कूद पडने का संदेश भेज दिया। सभी क्षत्राणियों ने साज श्रंगार किया चंदन की विशाल चिता बनवाई गई और " जय दुर्गे जय भवानी " कहते हुए हजारो ललनाएं जौहर की धधकती ज्वाला मे स्वाहा हो गई। इस प्रकार प्रतिहार रानियाँ चिता में जौहर हुई और कुछ रानियाँ जौहर ताल में विलीन हुई।


स्वर्ग अवछरा आई लेन । देव सिया भरि देखई नैन।।

धन्य - धन्य तेउं उच्चरै । सुर मुनि देखी सर्वे जय करैं।।


क्षत्राणियों का जौहर क्षत्रियों ने देखा और वे पीत बसन बांधकर तुर्की सैनिकों पर टूट पडे। देखते - देखते उनहोंने 5000 से उपर शत्रुओं को मौत के घाट उतार दिया। इस समर में 1500 परिहार राजपूत पहुंचे थे। इनमे से एक भी जिंदा नहीं लौटा।


पांच हजार तीन सौ साठ , परे अमीर लोह घटि।।

जूझो सारंगदेव रन संग ,  एक हजार पांच सौ संग।।


जौहर ताल के लिए भांट बताते है की प्रतिहार राजपूत स्त्रियों ने किस प्रकार जौहर कर अपने प्राणों की आहुति दी।।


पहले हमे जु जौहर पारि।

तब तुम जूझे कंध समहारि।।


इस घटना का उल्लेख एक शिलालेख में किया गया था, किंतु अब यह गुम हो गया। उरवाई घाटी को घेरने वाली दिवाल इलतुमिश के समय बनवाई थी। इस अंतिम युद्ध का सेनापति तेजस्वी परिहार मलयवर्मन कर रहा था। तथा उसके पुत्र हरिवर्मा , अजयवर्मा , वीरवर्मा मारे गये। सारंगदेव के बच्चे मऊसहानियां भेज दिये गये। अन्य भाई जिगनी - डुमराई चले गये। ग्वालियर में मलयवर्मन का सौतेला भाई नरवर्मा बच रहा था।


नरवर्मा प्रतिहार ने इलतुमिश के बेटे फिरोज रुकुनुद्दीन से समझौता कर लिया। इस समझौते के अनुसार नरवर्मा तथा उसके कुछ साथी (राजपूत) को दुर्ग में रहने का अधिकार मिल गया। किन्तु दिल्ली मे जब रजिया सुल्तान का शासन काल आया तो उसने ग्वालियर पर डेरा डाला और समझौते को रद्द कर दिया। उसने नरवर्मा को दुर्ग से बाहर निकाल दिया एवं चाहडदेव को दुर्ग की देखभाल सौंप दिया। इस प्रकार कभी तुर्क तो कभी परिहार इस दुर्ग पर अधिकार करते रहे। चाहडदेव भी परिहार था उसने धीरे - धीरे जन - धन एकत्र कर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। किंतु दिल्ली पर पुनः तूफान आया और उलुग खान बलवन की शक्ति बढ गई। दिल्ली की गद्दी छिनने के बाद पहला आक्रमण ग्वालियर पर करके चाहडदेव को बंदी बनाना चाहा। परंतु अजेय दुर्ग के भीतर न घुस सका और वापस लौट गया। सन 1258 ई. मे बलबन बहुत शक्तिशाली हो गया था उसने बडी सेना लेकर ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया उस समय तक चाहडदेव स्वर्गवासी हो चुका था। उसका नाती " गणपति याजपल्ल " दुर्ग का अधिपति था।


इसमें इतनी क्षमता नही थी की कुछ हजार सैनिकों के बल पर वह दिल्ली की सेना का सामना कर सके। अस्तु वह रात में ही परिवार सहित बिहार चला गया। जहां इनके वंशजो ने परिहारपुर ग्राम बसाया और आज भी हजारो की संख्या में आबाद है। और बाकी कुछ प्रतिहार दल झगरपुर , वीसडीह , मैनीयर उत्तर सुरिजपुर , सुखपुरा, हरपुरा आदि ग्रामों मे आबाद है। चाहडदेव ने अपने राज्य का विस्तार चंदेरी तक कर लिया था। इस तरह कभी सत्ता मे तो कभी सत्ताहीन होकर ग्वालियर मे परिहारो का आवास रहा है और लगभग 150 वर्षो तक संघर्षरत शासन किया। और आज भी ग्वालियर अंचल मे लगभग 25 से उपर गांव है प्रतिहारो के जो आवासित है।


ग्वालियर प्रतिहार वंश के शासक


परमादेव प्रतिहार

विजयपाल प्रतिहार

जलहणसी प्रतिहार

वासुदेव प्रतिहार

संग्राम देव प्रतिहार

महिपालदेव प्रतिहार

जयसिंह प्रतिहार

कृपालदेव प्रतिहार

कर्णदेव प्रतिहार

सारंगदेव प्रतिहार


13 वीं शताब्दी तक ग्वालियर से परिहार वंश का पतन हो गया और बचे कुचे परिहार अलग अलग जगह बस गये। जिसमे सारंगदेव ग्वालियर को छोडकर मऊसहानियां आ गये। एवं इनके अन्य भाई राघवदेव परिहार रामगढ जिगनी चले गये, रामदेव परिहार औरैया गये एवं छोटे भाई गंगरदेव परिहार डुमराई में जा बसे जहां आज भी इनके वंशज लगभग 30 गांवो से उपर आबाद है।


आप सभी जरुर शेयर करे।।

प्रतिहार\परिहार क्षत्रिय वंश।।


जय ना
गभट्ट।।

जय मिहिरभोज।।

Tuesday, 19 September 2017

बादामी गुफा




बादामी गुफा समुह कर्नाटक (विश्व धरोहर)

बादामी उत्तर कर्नाटक के बागलकोट जिले का एक प्राचीन शहर है। यह शहर जो वातापी के नाम से भी जाना जाता है 6 वीं से 8 वीं शताब्दी तक चालुक्य राजवंश (सोलंकी/बघेल) की राजधानी था।

बादामी या वातापी का इतिहास

बादामी दो से अधिक शताब्दियों तक पूर्व या पूर्वी चालुक्यों की राजधानी था। चालुक्य राजवंश ने 6 वीं से 8 वीं शताब्दी तक आंध्रप्रदेश तथा कर्नाटक के अधिकाँश भाग पर अधिकार कर लिया था। पुलिकेसी द्वितीय के शासन काल में यह राजवंश अपनी ऊंचाई पर पहुँच चुका था। चालुक्यों के बाद बादामी ने अपनी प्रसिद्धि को खो दिया।

घाटी में स्थित तथा सुनहरे बलुआ पत्थर की चट्टानों से घिरा हुआ वातापी जो कि बादामी का उस समय का नाम था, दक्षिण भारत के उन प्राचीन स्थानों में से है जहाँ बहुत अधिक मात्रा में मंदिरों का निर्माण हुआ। बादामी अपने सुंदर गुफा मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है जो अगत्स्य झील के आसपास स्थित हैं जो घाटी के मध्य में स्थित है।

बादामी के गुफा मंदिर

यहाँ चार गुफा मंदिर हैं जिनमें से तीन हिंदू मंदिर हैं तथा एक जैन मंदिर है।

पहली गुफा
पहला गुफा मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। यहाँ की विशेषता 18 फुट ऊंची नटराज की मूर्ति है जिसकी 18 भुजाएं हैं जो अनेक नृत्य मुद्राओं को दर्शाती है। इस गुफा में महिषासुरमर्दिनी की भी उत्तम नक्काशी की गई है।

दूसरी गुफा

दूसरी गुफा भगवान विष्णु को समर्पित है। इस गुफा की पूर्वी तथा पश्चिमी दीवारों पर भूवराह तथा त्रिविक्रम के बड़े चित्र लगे हुए हैं। गुफा की छत पर ब्रह्मा, विष्णु शिव, अनंतहसहयाना और अष्टादिक्पलाकास के चित्रों से सुशोभित है।

तीसरी गुफा

तीसरी गुफा बादामी की उस काल की गुफा मंदिरों की वास्तुकला और मूर्तिकला के भव्य रूप को प्रदर्शित करती है। यहाँ कई देवताओं के चित्र हैं तथा यहाँ ईसा पश्चात 578 शताब्दी के शिलालेख मिलते हैं।

चौथी गुफा

चौथी गुफा एक जैन मंदिर है। यहाँ प्रमुख रूप से जैन मुनियों महावीर और पार्श्वनाथ के चित्र हैं। एक कन्नड़ शिलालेख के अनुसार यह मंदिर 12 वीं शताब्दी का है।

बादामी में तथा इसके आसपास पर्यटन स्थल
गुफा मंदिरों के अलावा उत्तरी पहाड़ी में तीन शिव मंदिर हैं जिनमें से शायद मालेगट्टी शिवालय सबसे अधिक प्रसिद्ध है। अन्य प्रसिद्ध मंदिर भूतनाथ मंदिर, मल्लिकार्जुन मंदिर और दत्तात्रय मंदिर हैं। बादामी में एक किला भी है जिसमें कई मंदिर भी हैं तथा साहसिक गतिविधियों को पसंद करने वाले पर्यटक यहाँ रॉक क्लायम्बिंग का आनंद उठा सकते हैं।
बादामी एक आकर्षक स्थान है। बलुआ पत्थरों से घिरे होने के साथ साथ यहाँ प्राचीन गुफा मंदिर तथा किला है। इन मंदिरों को देखने के लिए तथा चालुक्य काल की वास्तुकला देखने के लिए बादामी की सैर अवश्य करें।

 जय राजपूताना।।

Friday, 15 September 2017


हिंदी-दिवस के अवसर पर  19वीं सदी के हिन्दी-संस्कृति साहित्य के महान साधक राजा लक्ष्मण सिंह जी  को सत सत नमन ------अंग्रेज सरकार के  कलक्टर , 10 से अधिक साहित्यिक भाषाओं के ज्ञानी ,कालिदास की कई रचनाओं के हिंदी में अनुवाद कर्ता ।कई पुस्तकों के लेखक और प्रसिद्ध साहित्यकार राजा लक्ष्मण सिंह जी का नाम वजीरपुरा के बच्चे नहीं जानते ।लेकिन उनकी पीली कोठी को बखूबी पहचानते है ।कोठी के रूप में राजा साहिब की यादें अभी भी जिंदा है ।उनके वंशज आज भी उनकी कृतियों को सहेज कर रखे हुये है ।आगरा के बाजीरपुरा मुहल्ले में पीले रंग में पुती बड़ी सी हबेली ही पीली कोठी है । राजा लक्ष्मण सिंह जी । भारतेंदु हरिश्चंद युग से पूर्व  की हिंदी गद्य की विकास यात्रा में हिंदी गद्य को समृद्ध करने और नई दिशा देने वालों में राजा लक्ष्मण सिंह का अविस्मरणीय योगदान  ।सरकारी कामकाज में हिंदी राजा लक्ष्मण सिंह की देन ।
   पारवारिक पृष्ठभूमि ---आधुनिक हिंदी के अनूठे गद्य शिल्पी राजा लक्ष्मण सिंह का जन्म 9 अक्टूबर ,1826ई0 को आगरा में वजीरपुरा के प्रसिद्ध  जादौन राजपूत  जमींदार परिवार में ठाकुर रूपराम सिंह के यहां हुआ था ।इनके पूर्वज बयाना के राजा बिजयपाल के वंशज रितपाल थे जो रि ठाड़ गाँव में रहेजिनके वंशज दुगनावत जादौन कहलाये जो आजकल आगरा के वजीरपुरा और धनी की नगलिया में रहते है ।जब मचेरी(अलवर )के राजा का भरतपुर के राजा के साथ युद्ध हुआ था तब मचेरी की सेना ने इनका पैतृक निवास स्थान करेमना  को जला दिया गया ।इनके पूर्वज कल्याण सिंह ने भरतपुर में आश्रय प्राप्त किया ।इनके बड़े पुत्र को राजा भरतपुर के द्वारा रूपवास परगने का फोतेहदर नियुक्त किया गया ।लेकिन उनकी शीघ्र मृत्यु हो गई ।कल्याण सिंह के छोटे पुत्र जो राजा लक्ष्मण सिंह के ग्रांडफादर थे ने सिंधिया की फ़ौज में नौकरी प्राप्त कर ली ।अंग्रेजों के द्वारा अलीगढ के किले पर जब अधिकार कर लिया था उससे कुछ समय पूर्व उनकी मृत्यु अलीगढ में हो चुकी थी और उनके पुत्र आगरा में आ गये ।
राजा लक्ष्मण सिंह की शिक्षा -----राजा साहिब की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही सम्पन्न हुई थी ।इन्होंने आगरा कालेज आगरा से सीनियर परीक्षा पास की यह बात सन् 1838ई0 के लगभग की है ।राजा साहिब को संस्कृत , अँग्रेजी ,प्राकृत ,ब्रजभाषा ,फ़ारसी ,अरबी ,उर्दू ,गुजराती ,व् बंगला आदि भाषाओँ का उन्हें अच्छा ज्ञान था ।आगरा कालेज से अग्रेजी व् संस्कृत की  पढ़ाई पूरी करने के बाद राजा साहिब ने 1847 ई0 में सरकारी सेवा में प्रवेश किया ।
1- राजा साहब सर्वप्रथम 1850ई0 में पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर के दफ्तर में 100 रूपये मासिक वेतन पर अनुवादक के पद पर नियुक्त हुये ।
2-योग्य तो थे ही,कर्मठ व् कार्य कुशल भी थे ।अतः थोड़े दिनों बाद सन् 1855 ई0 मेंराजा लक्ष्मण सिंह को इटावा का तहसीलदार बना दिया गया ।अपनी प्रतिभा के बल पर वे निरंतर आगे बढते गये और
3-सन् 1856 में बांदा के डिप्टी कलेक्टर के पद पर पहुँच गये ।
4-सन् 1886ई0 में राजा लक्ष्मण सिंह को उनके कार्यशैली और कुशल प्रशासनिक क्षमताओं को देख कर उनको बुलन्दशहर  का कलक्टर बनाया गया ।तत्कालीन पार्लियामेंट ने इसका विरोध किया ।वे 20 वर्ष तक बुलंदशहर के कलक्टर रहे ।उन्होंने बुलहंदशहर का गजेटियर भी लिखा ।
5- 1जनवरी सन् 1877ई0 को राजा साहिब को दिल्ली दरवार में गवर्नर जनरल वायसराय ने "राजा "का खिताव प्रदान किया ।
हुकूमत में थे पर अंग्रेजियत के खिलाफ

----राजा साहिब एक सफल प्रशासनिक अधिकारी तो थे ही ,इसके साथ ही वे हिंदी -संस्कृत साहित्य के महान् साधक भी थे ।उन्होंने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन भी किया ।यही नही उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भीउस ज़माने में बहुत सराहनीय कार्य किये ।इटावा में रहते हुये उन्होने  हिंदी ,उर्दू ,और अंग्रेजी एक पत्र निकलाजिसकी 30 हजार प्रतियां प्रकाशित होती थी ।हिंदी में इस पत्र का नाम "प्रजाहित "था ।प्रजाहित का सम्पादन राजा साहिब स्वयं करते थे  ।ये पत्र सन् 1860 से 1864 ई0 तक लगातार 4 वर्ष प्रकाशित हुआ । सन 1861ई0 में उन्होंने कालिदास के नाटक "अभिज्ञान शाकुन्तलम् "का शकुन्तला नाम से हिंदी में अनुवाद अपने इटावा प्रवास काल में किया था ।इसके बाद राजा साहिब को बुलन्दशहर स्थानांतरित कर दिया और ये  पत्र बंद हो गये।
    राजा लक्ष्मण सिंह  बुलंदशहर में 20 वर्ष तक कलक्टर के पद पर कार्यरत रहे ।उन्होंने वहां की जनता कीअंग्रेजी हुकूमत में भी खुल कर मदद की ।हर तरह की आपदा में लोगों की मदद करते थे ।उनके अंदर राष्ट्रवादी विचारधारा कूट कूट कर भरी हुई थी ।सन् 1882ई0 में उन्होंने कालिदास के रघुवंश और मेघदूत का भी हिंदी में अनुवाद किया ।वे उर्दू साहित्य के भी ज्ञाता थे ।उर्दू में उनकी सर्वाधिक कृतियाँ है ।इनमे कैफियत ए -जिला बुलहंदशर ,किताबखाना -शुमार -ए -मुगरबी ,वास्ते डिप्टी मजिस्ट्रेट ,कीप विट्स ,मजिस्ट्रेट गाइड के अलाबा और भी किताबें लिखी ।
वे सन् 1887ई0 में कलकत्ता विश्व विद्यालय के फैलो, एशियार्तिक सोसाइटी के सदस्य और आगरा नगर पालिका के उपाध्यक्ष  रहे  ।अंग्रेजी हुकूमत की नौकरी करने के बावजूद भी वे अंग्रेजियत के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करते रहे ।
हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में भी राजा साहिब की गूंज ---अंग्रेजी हुकूमत तक इंडियन सिविल सर्विसि में भारतीयों को शामिल नही करती थी ।इस पर लन्दन के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में बहस हुई ।अंग्रेज अफसरों ने भारतीयों को लेजी और कामचोर कह कर संबोधित किया ।तब इटावा के कलक्टर और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक अध्यक्ष ऐओ ह्यूम ने इस पर कडा विरोध जताया ।उन्होंने राजा लक्ष्मण सिंह का उदाहरण देते हुये कहा कि उनके जिले में अनुवादक एक युवक हमारी सोच से कहीं ज्यादा ऊर्जावान है ।ह्यूम ने कहा कि कुंवर लक्ष्मण सिंह  में फिजिकल और मेन्टल इनर्जी भरी पडी है  जो घोड़े की पीठ पर बैठ कर उनसे पहले आगरा पहुँच जाते है ।
सरकारी कामकाज में हिंदी राजा लक्ष्मण सिंह की देन ---हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलवाने को संविधान सभा और बाद नें संसद में लड़ी लड़ाई तो सर्व विदित है  किन्तु यह तथ्य अभी हाल ही में अनावरित हुआ है कि सरकारी कामकाज में हिंदी उपयोग का मार्ग प्रशस्त करने की आधिकारिक शुरुआत सन् 1860 ई0 में ही हो गयी थी और इसके लिए आगरा के वजीरपुरा ठिकाने से जुड़े जादौन ठिकानेदार के पुत्र और प्रख्यात साहित्यकार हिंदी सेवी राजा लक्ष्मण सिंह की भूमिका अहम् थी ।इटावा में ही डिप्टी कलक्टर की हैसियत से ही सन् 1860 ई0 में राजा साहिब ने पटवारियों को हिंदी में खसरा -खतौनी आदि भूमि संबंधी रिकार्ड रखने के निर्देश दिया था ।यह हिंदी के प्रति उनकी आस्था का प्रतीक था ।
व्यस्त प्रशासनिक सेवा में रहते हुये भी राजा साहिब ने माँ सरस्वती की आराधना कर हिंदी साहित्य भंडार को समृद्ध किया और हिंदीभाषा का परचम पुरे देश में फहराया ।यह हर हिंदुस्तानी के लिए अत्यंत गौरव की बात है ।यह उनके प्रतिभा संपन्न महान व्यक्तित्व का प्रतीक भी है ।उनके शाकुन्तलम् नाटक को तो बहुत समय तक भारतीय प्रशासनिक सेवा परीक्षा के पाठ्यक्रम में भी रखा गया था ।
राजा साहिब बुलन्दशहर के कलक्टर के पद से सन् 1888 में  अवकाश प्राप्त कर आगरा आ गये  थे ।70 वर्ष की आयु में 14 जुलाई 1896 ई0को  अपनी अंतिम कर्मभूमि  बुलन्दशहर में गंगा जी के  किनारे  राजघाट पर उनका देहावसान हो गया था ।अपने महाप्रयाण के एक माह पूर्व राजा साहब गंगा मैया की शरण में गंगा तीर चले गये थे ।
    आज भी राजा साहब का परिवार आगरा में प्रतिष्ठित परिवार माना जाता है ---राजा साहिब के पिता जी ठाकुर रूपराम सिंह जी की "पीली कोठी " आज भी आगरा में अपनी पुरातन पहिचान बनाये हुये है । आज भी आगरा का बच्चा -बच्चा पीली कोठी के नाम को जनता है ।उस ज़माने में ठाकुर साहिब की पीली कोठी पर बहुत से लोग उर्दू में अपनी चिठीयां पढ़वाने अक्सर उनके पास आते थे और लोगों को राजा साहब के पूज्य पिताजी का मार्गदर्शन प्राप्त होता था ।इस परिवार के लोग बेसहारा ,सताये हुये और गरीब लोगों की खुले दिल से सहायता करते थे ।इस कारण इस परिवार का लोग काफी सम्मान करते थे और आज भी करते है ।अंत  में , आज मैं,हिंदी दिवस के अवसर पर  हिंदी गद्य के इस महान शलाका पुरुष  की स्म्रति में  श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए  तहे दिल से सत् सत् नमन करता हूँ ।
लेखक तहे दिल से राजा साहब के प्रपौत्र कुंवर दिनेश प्रताप सिंह जी ,ठिकाना -वजीरपुरा ,आगरा  का अत्यंत  आभारी है जिन्होंने मेरे विनम्र आग्रह पर राजा साहब से सम्बंधित बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारियां प्रदान की ।आशा करता हूँ आगे भी सहयोग देते रहेंगे ।राजा साहब के हिंदी गद्य के विकास में योगदान को लिखना असम्भव कार्य है ।मैंने कुछ अंश लिखने का प्रयास किया है जिसके माध्यम से हमारे युवा और बुद्धिजीवी लोग उनके हिंदी प्रेमी भाव से कुछ सीख हासिल करें ।जय हिन्द  ।जय राजपूताना ।।
लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
            गांव -लढ़ोता ,सासनी ,
            जिला-हाथरस, उत्तरप्रदेश
            राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी
            अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
           

Sunday, 10 September 2017


******भाई बचित्र सिंह जी शहीद****

भाई बचित्र सिंह #पवार #राजपूत घराने से संबंध रखते थे ।
इनके बुजुर्गों ने 15 वीं सदी में सिख धर्म अपना लिया था । इस परिवार ने सिख धर्म के लिए बहुत कुर्बानियां की । ये सभी बहुत शूरवीर बहादुर थे और रणभूमि मे शत्रुओं के लिए जैसे काल थे ।
भाई बचित्र सिंघ जी के पिता राव (भाई) मनी सिंघ जी व दादा राव माई दास जी रियासत अलीपुर (नजदीक मुलतान) के राजा थे । उनका परिवार पंवार राजपूत घराने के महाराजा भोज व महाराजा उदय दीप का वंशज था जो मालवा क्षेत्र की रियासत धारा नगरी के राजा थे ।
इनकी वंशावली इस प्रकार है-
राजा सांतल
राजा मघ
राजा मुंज
राजा भोज
राजा जैसिंह
राजा सप्तमुकुट
राजा चतुर्मुकुट
राजा उदयदीप
राजा रणधावल
राजा उधार
राजा अम्ब चरन
राव लोइया
राव बींझा
राव जगन
राव माला
राव रादा
राव लखमण
राव जल्हा
राव हाफा
राव चाहड़
राव राऊ
राव मूलचंद
राव बल्लू राए
राव माईदास
राव मनी सिंह
कुंवर बचित्र सिंह ।

राव (भाई) बल्लू राए जी पवार इनके परदादा थे जो सिखों के छठे गुरु श्री गुरु हरगोबिंद साहिब के प्रमुख सेनापति थे एवं 1634 ईस्वी मे मुगलों से लड़ते हुए शहीद हुए थे ।
राव (भाई) मनी सिंह जी पवार इनके पिता जी थे जो महान योद्धा व विद्वान थे और गुरु गोबिंद सिंह जी के दीवान (प्रधानमंत्री) थे। मुगलों ने बहुत यातनाएं देकर उनको 1734 ईस्वी मे शहीद किया । तब उनकी आयु 90 वर्ष थी।
कुंवर (भाई) बचित्र सिंह जी के 7 भाई और 2 पुत्र समय समय पर दुश्मनो  से लड़ते हुए शहीद हुए थे ।
इनके परिवार के शहीद हुए सदस्यों की कुल संख्या 53 है ।

**तिनहु मझार एक है बचित्र सिंह सूरमा ।
बली बिलंद बाहु दंड शत्र ते गरूरमा ।
सु राजपूत जात ते मुछैल छैल जानिए ।
कृपान ढाल अंग संग जंग मे महानिए ।
@कवि संतोख सिंह- सूरज प्रकाश ग्रंथ

1 सितंबर 1700 को पहाड़ी राजाओं ने
राजा केसरी चंद जसवाल (हिमाचल प्रदेश) के नेतृत्व में  किला लोहगढ का दरवाजा तोड़ने के लिए एक खूंखार हाथी को शराब पिलाकर भेजा ।
पहले गुरु जी ने दुनी चंद(जो माझा क्षेत्र का रहने वाला था) की तरफ इशारा करके कहा कि हाथी का मुकाबला हमारा हाथी (दुनी चंद बहुत डील डौल वाला था) करेगा लेकिन जब दुनी चंद भाग गया तो गुरु जी ने कहा कि अब हाथी का मुकाबला हमारा शेर (भाई बचित्र सिंह) करेगा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने राव (भाई) मनी सिंह जी पवार (रियासत अलीपुर) ,उनके सुपुत्र भाई बचित्र सिंह जी भाई उदय सिंह जी प्रसिद्ध जनरल भाई आलम सिंह जी चौहान आदि सिख जरनैलों को भेजा ।
भाई बचित्र सिंह जी पवार को विशेष नागिन बरछा दिया गया था ।
रणभूमि मे पहुंच कर रणबांकुरे दुश्मन पर टूट पड़े ।
भाई बचित्र सिंह जी ने इतनी ज़ोर से बरछा मारा कि वो हाथी के माथे पर बांधे फौलाद के 7 तवों को चीर कर उसके माथे मे धंस गया ।
हाथी चिंघाड़ते हुए वापस पलटा और पहाड़ी फौज को लताड़ने लगा ।
इधर भाई उदय सिंह जी ने चीते की फुरती से राजा केसरी चंद का सिर काट लिया ।
खालसा फौज की जीत हुई ।

जब सिख फौज गुरु गोबिंद सिंह जी उनकी माता जी और महल(बीवीयां) के साथ आनंदपुर साहिब का किला छोड़ कर निकली तो एकदम से छुपे हुए पहाड़ी राजाओं ने हमला कर दिया ।
इसी दौरान गुरु गोबिंद सिंह जी के गुप्तचरों ने सूचना दी कि दक्षिण की तरफ से सरहिंद के वज़ीर खान की फौज भी आ रही है ।
इस तरह उत्तर की और से आ रही पहाड़ी राजाओं की फौज व दक्षिण की तरफ से आ रही सरहिंदी फौज के बीच
खालसा फौज जरनैल व गुरु गोबिंद सिंह जी घिर गए ।
वहां पर फैसला ये हुआ कि उत्तर की और से आ रही पहाड़ी फौज को रोकने कुंवर उदय सिंह (अलीपुर रियासत) खालसा फौज के साथ जाएंगे एवं दक्षिण की तरफ से आ रही सरहिंद फौज को रोकने कुंवर बचित्र सिंह (अलीपुर रियासत) खालसा फौज के साथ जाएंगे ।
इस तरह कुंवर बचित्र सिंह जी संवत् 1762 पौष
मास सुदी दूज को सरहिंद की फौज घोर युद्ध करते हुए बुरी तरह घायल हुए ।
घायल हुए कुंवर बचित्र सिंह जी को खालसा फौज के कुछ सरदार पास मे ही स्थित कोटला निहंग खान के जागीरदार निहंग खान की हवेली में ले गए जो गुरु घर के श्रद्धालू थे । उनकी बेटी मुमताज़ ने घायल कुंवर बचित्र सिंह जी की बहुत सेवा की । किसी ने रोपड़ की मुगल चौंकी मे सिखों के कोटला निहंग खान की हवेली में होने की सूचना दे दी तो चौंकी का कोतवाल जांच करने पहुंच गया ।पूरे घर की तलाशी मे कुछ नहीं मिला बस एक कमरा बच गया जिसमें कुंवर बचित्र सिंह जी व बीबी मुमताज़ थे । जागीरदार निहंग खान के कहने पर कि इसमें मेरी बेटी व दामाद हैं, कोतवाल ने तलाशी नहीं ली और चला गया ।
लेकिन कुंवर बचित्र सिंह जी के घाव बहुत गहरे थे सो 8 दिसंबर को रात 11-30 बजे शहादत
 का जाम पी गए ।
2 दिन कुंवर बचित्र सिंह जी की सेवा करने के बाद जागीरदार की बेटी मुमताज़ ने उनको मन ही मन अपना पति मान  लिया और सारी जिंदगी शादी नहीं की । कुंवर बचित्र सिंह जी की विधवा के रूप में जिंदगी गुज़ार दी।
इस सब के बारे मे कुंवर जी के परिवार के रावजी/भाट लिखते हैं -
""बचित्र सिंह बेटा मनी सिंह का पोता माइ दास का पड़पोता बल्लू राए का,चन्द्रबंसी,भारद्वाज गोत्र, पंवार,  बंस बींझे का बींझावत, जल्हे का जलहाना, बल्लू का बालावत, साल सत्रह सौ बासठ पौष मास सुदी दूज वीरवार के दिहुं मलकपुर के मलहान रंघड़ां (मुस्लिम राजपूत) गैल युद्ध मे घायल हुआ ।गाम कोटला परगना निहंग खान के ग्रह रहा ,पौष मासे सुदी चौथ शनिवार के दिवस डेढ़ पहर रैन गई श्वास पूरे हुए ।निहंग खान की पत गुरु राखी।इसकी बेटी का सत रहा।""
    (भाट बही मुलतानी सिंधी)

Friday, 8 September 2017

रोजगार मेला

क्षत्रिय रोजगार मेला -2017

आप सभी क्षत्रिय बन्धुओं कॊ बड़े हर्ष के साथ सूचित किया जाता है कि क्षत्रिय एकता मंच (रजि) हरियाणा 17 सितम्बर 2017 रविवार सुबह :-9:00 2:00 तक ऑडिटोरियम नगर निगम सभागार फरीदाबाद में राजपूत रोजगार मेले का आयोजन करने जा रहा है जिन राजपूत बच्चों ने 10th,12th ITI,Polytechnic,BBA,BA,Bcom,Bsc,Btech.और कोई भी अन्य कोर्स किया हुआ है वह लोग अपने बायोडाटा हमे नीचे दिये हुये मेल आईडी पर और व्हाट्सपर भी भेज सकते है ।ताकि संस्था कार्यक्रम से पहले आप सबके लिये आपकी योग्यता अनुसार कम्पनियों कॊ बुला सके ।और इस प्रकार हम सब लोग मिलकर अपने बेरोजगार राजपूत युवाओं की मदद कर सके। और आप सभी इस कार्य में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले ।और कार्यक्रम कॊ सफल बनाये ।ऐसी हम अपने सभी राजपूत भाइयों से अपेक्षा रखते है ।आप सभी अपने सुझाव भी दे।

धन्यवाद 🙏🏻🙏🏻

सम्पर्क सूत्र:-9899916566/9810245566/9990006428/9654873117/9711154474/9990898125/9891230142/9873918525

मेल-आईडी-kshatriyamanch@gmail.com

Thursday, 7 September 2017

चंदेरी की मणिमाला का जौहर


27 जनवरी 1528 की रात्रि का अंतिम प्रहर समूची प्रकृति सोई पड़ी थी भोर होने मे एक पहर शेष था सूर्योदय में यकायक रणतूर्य बज उठे, सुरक्षा चौकियों से साबधान होने के संकेत मिलने लगे। दुर्ग के प्रहरियों ने रणतूर्य बजाकर सजग होने का संदेश दोहराया उत्तर दिशा से धूल का बवंडर चंदेरी की ओर बढ़ा चला आ रहा था । कुछ ही समय में धूल और लाली के मिश्रण ने चंदेरी नगर को ढक लिया था। महाराज मेदनीराय परिहार ने चारों ओर दृष्टि डाली तब पता चला कि चंदेरी नगर चारों ओर से बाबर की तोपों से लैस सैना द्वारा घेरा जा चुका हैै। तभी भागता हुआ प्रहरी आया। महाराज की जय हो.... तुर्क सैनिक एक पत्र देकर गया है। महाराज मेदनीराय ने पत्र पढ़ा....।
मुझे सख्त अफसोस है , कि हिंद के क्षत्रियों में जोश ही बहुत है पर होश की बहुत कमी है लेकिन तुमसे उम्मीद है , कि हिंद में और क्षत्रिय में अपने होशो हबाश की मिसाल कायम करके मेरी मातहती कबूल कर लोगे। काबुल से लेकर बेतवा तक के मालिक से दोस्ती करने पर तुम्हारा रुतवा बढ़ेगा न कि घटेगा बड़ों की दोस्ती हमेशा फायदेमंद रहती है। अब अपनी अक्ल से काम लेना अपनी औकात को भी नजर अंदाज ना करना। मैं भी तुम्हारी दोस्ती पर फक्र करुंगा .....।
शहंशाह बाबर

इस भावी युद्ध की सूचना राणासांगा को भेजी जा चुकी थी । परंतु बाबर का सौभाग्य कहिये , कि राणा सांगा इस युद्ध में भाग नहीं ले सके। बल्कि ठीक इसी समय एक प्रहरी तुर्क वेश में रांणासांगा का पत्र लेकर आया।
मेरे प्रिय मानस पुत्र मेदनीराय तुम्हारी चिंता में चित्तोड़ से चंदेरी के लिये चला अब एरच मे ठहरा हूं , मेरे जीवन का यह अंतिम ठहराव है।  अब कुछ ही देर में प्राण इस विकलांग शरीर से नाता तोड़ देगें। मेरे मन की इच्छा अतृप्त ही रह जायेगी। मैं चाहता था कि मेरे प्राण इस शरीर को युद्ध स्थल में ही छोड़ते , जिससे मुझे तृप्ति , तुम्हें सहयोग और आने वाली पीढ़ी को प्रेरणा मिलती और बाबर का  हिसाब-किताब भी पाई-पाई चुकता हो जाता।
प्रिय मेदनीराय.....थोड़े से साधनों पर निर्भर पिंजड़े मे बंद पंक्षी की भांति तुम्हारी स्थिति आगई है। अब तुम्हे बल से नही बुद्धि से काम लेना है। हमारी भावुकता का ही परिणाम है कि यवन भारत में आ गये  यह भावुकता के संस्कार अपने रक्तगत दोष के परिणाम हैं। जिन पर तुम संयम और विवेक के अंकुश से विजय पा कर दूरदर्शी बुद्धीमत्ता पूर्ण निर्णय लोगे। इसी विश्वास के साथ तुम्हे युद्ध का होता बनाकर अब अपने जीवन की अंतिम आहुती युद्ध के मार्ग मे दे कर जा रहा हूं। कुछ और अधिक लिखता लेकिन अब और लिखने की सामर्थ नही है।
रांणासांगा.........।

तभी मेदनीराय ने संकल्प लिया हे धर्म पिता आपका मानस पुत्र रक्त की सरिता में स्नान कर तुर्कों के रक्त को अंजुली मे भर ही आपका तर्पण करेगा उसी से आपकी आत्मा तृप्त होगी। तभी बाबर के विशेष दूत शेखगुरेन तथा अरयाश पठान ने पत्र का जबाव मांगा.......।
मेदनीराय.....क्षत्रिय है.... भारत के इतिहास में क्षत्रिय भेंट नही लेते हैं...जितनी आग उसकी तोपों मे है ,इतनी गर्मी तो हर हिंद के क्षत्रिय के खून मे होती है.......।
महाराज मेदनीराय परिहार बाबर से युद्ध की घोषणा करते है....। बाहर शंखध्वनी तथा रणतूर्य बज उठते हैं राजपूतों की भुजायें फड़क उठती हैं।
प्रिये मंणिमाला अब हमे विदा दो हो सकता है ,यह हमारे जीवन का अंतिम मिलन और अंतिम विदा हो।
आर्यपुत्र.......कौन सी शक्ति है ? संसार में भारतीय नारी के सुहाग को मिटा सकती है ? हॉ इतना अवश्य माना जा सकता है कि हमारा आधा अंग युद्ध की ओर जा रहा है यदि कही वह रणचंडी का प्रिय हो गया तो अविलंम्व यह दूसरा अंग भी अग्निमार्ग से अपने आधे अंग से जा मिलेगा फिर आप कैसे कह सकते है कि यह हमारा अंतिम मिलन है।
 ( भारत मे किसी क्षत्रिय सेना का सामना पहली बार तोपों से हुआ था)

 भले ही राजपूत सेना का संख्या बल कम था पर पहले ही हमले मे तुर्क सेना के अग्रिम पक्ति के सैनिक काट डाले गये सेनापति मेहमूद गाजी के उकसाने पर भी तुर्क सेना पीछे हटने लगी। इस युद्ध में बुंदेलखंड के राव, सामंत,और लड़ाकू वीर क्षत्रिय युद्ध के आमंत्रण पर स्वेच्छा से मातृभूमि पर प्रांणोत्सर्ग करने आ पहुचे। सैना मे त्राहि त्राहि मच गई । खानवा और पानीपत का विजेता बाबर भी क्षत्रियों के विकट युद्ध से भयभीत हो गया। इस विषम परिस्थिति को आंक कर पीछे हट गया और खच्चर गाड़ियो पर लदी तोपों को आगे बढ़ा दिया गया। तथा घुड़सवार सैनिको को दांये तथा बांये से आक्रमण का हुक्म दिया(मानो भेड़िये सिंहों के घेरने की कोशिस कर रहे हैं ) युद्ध के नवीन संचालन से सिंहों की गति अवरूद्ध हो गई तोपों की मार से चीख-चिल्लाहट बढ़ी तो बढ़ती ही गई।

क्षत्रियों की आधी सेना तुर्कों की चौगनी सैना को मार कर वीरगति को प्राप्त हो चुकी थी। संध्या हो चुकी थी आज का युद्ध समाप्त हुआ। मेदनीराय अपने सेनापति नारायण के साथ अपनी सेना को एकत्र कर दुर्ग वापस लौटे।
रात्रि का प्रथम पहर था। रानी मणिमाला महाराज मेदनीराय के शरीर पर लगे घाव धोकर राज वैध की औषधि लगाकर गहन चिंतन में लेटे तभी हॉफते हुये सेनापति... नारायण ....महाराज की जय हो..... अहमद खॉ ने नगर का द्वार खोल दिया है नगर में बाबर की सैना घुस आई है। महाराज मेदनीराय झटके से उठे और पीछे मुड़कर बस इतना कहा विदा.... अंतिम विदा मंणि......और बाहर निकल आये। महारानी मणिमाला किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ी देखतीं रहीं। महाराज मेदनीराय ने नगर के मध्य पहुच कर शंखध्वनि दी।
हर हर महादेव का घोष दोहरा कर क्षत्रिय तुर्को पर टूट पड़े तिल तिल बढ़ना अब तुर्कों के लिये मौत का खुला खेल था। इस परिस्थिति को भांप कर बाबर ने चारों और से तोपों को चलाने का हुक्म दिया। कुछ ही क्षणों मे महाराज मेदनीराय घायल हो कर जमीन पर गिर पड़े। महाराज के विशेष सहयोगी नारायण ने परिस्थिति को भांप कर महाराज को कंधों पर उठा दुर्ग की ओर बढ़ गये।

इधर तुर्क सेना ने चंदेरी नगर में आग,लूट तथा हत्या का जो कार्य सुरू किया दूसरे सारे दिन चलता रहा। सूर्यास्त होने पर टीले पर झंडा गाढ़ दिया इधर रात्रि के तीसरे पहर प्रतिहार मेदनीराय ने ऑखें खोली
 महाराज मेदनीराय खड़े हुये हाँ अब मे अतिम युद्ध करने जा रहा हूं...
 हर हर महादेव करते हुये राजपूत दुर्ग के प्रमुख द्वार से बाहर आगये दुर्ग का द्वार खोल दिया गया जो आज भी खुला है। राजपूत तुर्कों पर घायल शेर की भांति टूट पड़े। दोनों ओर से अंतिम युद्ध लड़ा जाने लगा दुर्ग के मुख्य द्वार से रक्त की सरिता वहने लगी लाशों के ढेर लग गये। दिन के तीसरे पहर तक युद्ध चला और सभी महाराज मेदनीराय सहित तुर्कों को काटते काटते वीरगति को प्राप्त हो गये। बाबर भी चंदेरी दुर्ग मे घुसने मे रक्त की धारा लांघ ने मे कांप रहा था। यह देख कर बाबर के मुह से घबरा कर निकल गया...ओह..खूनी दरबाजा....।

उस दरबाजे को आज भी खूनी दरबाजे के नाम से जाना जाता है। अंतिम बचे प्रहरी ने महारानी मणिमाला को संदेश दिया....अन्नदाता वीरगति को प्राप्त हो गये। मणिमाला
चिर सुहागन मणिमाला के संकेत पर गिलैया ताल किनारे बनी विशाल चिता मे अग्नि प्रज्वलित करदी गई। महारानी मणिमाला के आदेश पर विशाल चिता मे अग्नि प्रज्वलित कर दी गई। कुछ ही क्षणों मे लपटे आकाश छूने लगीं। गिलैया ताल किनारे 1500 राजपूत रमणियों ने अपने जीवन को होम कर दिया। देखते ही देखते समूचां दुर्ग आग का गोला बन चुका था।  जैसे ही तुर्क सैनिक दुर्ग के भीतर जाने को हुये तो बचे हुये दो-चार सैनिकों ने मोर्चा सभाहला औऱ  बीरता पूर्बक लड़ते हुये वीरगती को प्राप्त हुए और अहमद खॉ बाबर के अगल-बगल खड़े हुये जलती चिता को देख रहे थे। जीवित जलती कोमलांगीयों को देख बाबर वेचैन हो गया। उसका कठोर ह्रदय भी पीडा से कराह उठा उसी समय चिता के भीतर से एक सनसनाता हुआ तीर आया और बाबर की पगड़ी मे लगा और वह जमीन पर गिर गई। तुर्कों मे फिर से आतंक छा गया तब बाबर के सभी सैनिक भाग कर चिता के नजदीक पहुचे और देखा कि मणिमाला अपने तरकश के तीर प्रयोग कर खाली धनुष कंधे पर डाल कर उस महाचिता को प्रणाम कर सुहाग के गीत गाती हुई चिता की ओर ऐसे बढ़ती गंई जैसे मुगल बेगम फूलों की सैर करने जाती हैं।
बाबर ठगा सा तलबार टेके हुये एकटक खड़ा देखता रहा और बाबर ने अपनी तलबार चिता मे डालकर श्रधांजली दी। बाबर अनमना सा अपने खेमे मे लौट आया चंदेेरी दुर्ग जीतकर बाबर ने विजय उत्सव नही मनाय। बाबर ने चंदेरी के भग्न ध्वस्त दुर्ग की सुवेदारी अहमद खॉ को सौप कर उसी समय दिल्ली के लिये कूच कर दिया। चंदेेरी दुर्ग की जलती चिता भभकती रही इस सुहाग की आग को लोगों ने 15 -15 कोस दूर से देखा। चंदेरी जौहर का पता चलते ही सुदूर अंचल की प्रजा भागी भागी आई और श्रद्धा सुमन अर्पित कर धन्य हुई।

राजपूतो का गौरवान्वित इतिहाश

सभी भाइयो से तह दिल से निवेदन है कि यह ब्लॉग जातिवाद पर आधारित नही है ।

आजादी से पहले एवं बाद में राजपूत समाज के जिन जिन वीरो ने भारत माता की पुण्य धरती पर जन्म लिया हैं उनकी महानता तथा वीरता से वर्तमान पीढ़ी को रूबरू कराना ही हमारा उद्देश्य हैं ताकि आने वाली पीढ़ी अपने पूर्वजो उओ सदा याद रखे उनकी वीरता को याद रखे एवं उनके सत्यवादी मार्ग पर चले।
वीर केवल मात्र किसी जाती विशेष में नही हुए सभी जातियों में अलग अलग वीरो ने जन्म लिया हैं उन सभी वीरो को शत् शत् नमन।
भारत की पुण्य धरती पर जितने भी वीरो ने जन्म लिया है  उनकी जीवनशैली से आपको अवगत कराने की पूरी कोशिश हम करेंगे।