संजय लीला भंसाली द्वारा निर्मित पद्मावती फिल्म विवाद पर देश के स्वघोषित वामपंथी बुद्धिजीवी न्यूज चैनल्स पर अक्सर कहते मिल जायेंगे कि पद्मावती एक फिल्म ही तो है, इस पर विवाद कैसा? यही नहीं बहुत से बुद्धिजीवी इस मामले में राजनीति व सामाजिक संगठनों द्वारा वसूली भी कारण मानते है| हो सकता है इन बातों में कुछ सच्चाई हो, पर यह यह बात पक्की है कि इन बातों से इतर आम राजपूत की फिल्मों से भावनाएं आहत होती है| फिल्मों का आजतक का इतिहास रहा है- किसी भी फिल्म में एक ठाकुर होगा, वह अत्याचारी दिखाया जायेगा और आखिर हीरो द्वारा उसे घोड़े से घसीटता दिखाया जायेगा| यही बात सबसे ज्यादा राजपूतों को आहत करती है| क्योंकि स्थानीय जनता गांव के साधारण राजपूत को ही, भले वह किसान ही क्यों ना हो, ठाकुर ही समझा जाता है और जब फिल्म वाली बातकर उस पर लोग व्यंग्य करते है तब उसकी निश्चित ही भावनाएं आहत होती है और फिल्म निर्माता को वह अपना दुश्मन नंबर वन समझता है|
आपको बता दें इतिहास पर बनने वाली फ़िल्में राजपूतों की सबसे ज्यादा भावनाएं आहत करती है| इसका सीधा सा कारण है, हर राजपूत के कुछ पीढियों दूर के किसी पूर्वज ने शासन किया है| जिन ऐतिहासिक पात्रों पर फिल्म बनती है उससे आम राजपूत का खून का रिश्ता है| आज रानी पद्मिनी देश के बाकी नागरिकों के लिए बेशक एक रानी थी, लेकिन राजपूत के लिए माँ थी, हर राजपूत का किसी ना किसी तरह उससे या उसके परिवार से खून का रिश्ता है| ऐसे में कोई भी व्यक्ति अपनी माँ, दादी, नानी आदि के किसी फिल्म में उल्टे-सीधे दृश्य कैसे बर्दास्त कर सकता है| यही बात इन कथित स्वघोषित बुद्धिविजियों को समझ नहीं आती|
वर्षों से ठाकुर, सामंत के नाम पर आम राजपूत को फिल्मों में निशाना बनाये जाने को लेकर आम राजपूत के मन में गुस्सा भरा हुआ था, पर उसे अभिव्यक्ति का सही प्लेटफार्म नहीं मिल पा रहा था| अब सोशियल मीडिया के रूप में आम राजपूत युवा को अभिव्यक्ति का प्लेटफार्म मिल चुका है और वह इसी का प्रयोग कर फिल्म उद्योग के खिलाफ अपना रोष अभिव्यक्त कर रहा है| यही नहीं सोशियल मीडिया पर राजपूत युवाओं व बुद्धिजीवियों द्वारा चलाये जागरूकता अभियान का भी असर हुआ है कि अब राजपूत युवा संगठित हो रहे है और विरोध की अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बखूबी इस्तेमाल कर रहे है| अत: जो लोग यह समझते है कि ऐसी फ़िल्में पहले भी बनती आई, अब भी बन गई तो कौनसा पहाड़ टूट गया?
ऐसे लोगों के लिए एक जबाब है कि यह आवश्यक नहीं कि जो गलती पहले बर्दास्त कर ली गई, वह हमेशा बर्दास्त की ही जाएगी| इसका एक ही निवारण है- फिल्म में राजपूत पात्रों को विलेन दिखाना बंद किया जाय, इतिहास पर बनने वाली फिल्मों में राजपूत इतिहासकारों या सम्बन्धित पूर्व राजघराने से सहमति व ऐतिहासिक तथ्य लेकर फिल्म निर्माण किया जायेगा, तब ना किसी की भावनाएं आहत होगी, ना किसी फिल्म का विरोध होगा|
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