Thursday, 28 September 2017

ग्वालियर का प्रतिहार क्षेत्रीय वंश

-----> ग्वालियर का प्रतिहार क्षत्रिय वंश < ----- 


आज हम आप लोगो को ग्वालियर के प्रतिहार वंश एवं उनके संघर्ष की कहानी बतायेंगे। जब तुर्कों के आक्रमण से परिहार रानी तोंवरी देवी को जौहर करना पडा था। जिसमे उनके साथ 1500 से ऊपर राजपूत महिलाएं भी थी।।


ग्वालियर पर प्रतिहार क्षत्रियों ने लगभग 150 वर्ष शासन किया है। यहां के प्रतिहार कन्नौज के प्रतिहारो के सामंत के रुप मे कार्य करते थे और इन्ही के भाई परिवार थे। ग्वालियर पर नागभट्ट द्वितीय ने सन 795 ईस्वी मे ग्वालियर दुर्ग का निर्माण करवाया था। कुछ दिनो के बाद दुर्ग की हालत खराब हो रही थी तब सन 850 ईस्वी मे मिहिरभोज प्रतिहार ने ग्वालियर को अपने साम्राज्य कन्नौज की उपराजधानी बनाया और ग्वालियर दुर्ग को सजाया और संवारा। इस विशाल राजप्रसाद को बागों झरनों से सुसज्जित किया एवं रानियों के लिए अनेक बिहार स्थल भी बनवाये। मिहिरभोज के शासनकाल में उसका नाती किट्टपाल परिहार किले का रक्षक था।


सन 1036 ईस्वी में कन्नौज का सम्राट यशपाल था तभी महमूद गजनवी ने कन्नौज पर आक्रमण करके उसे नष्ट कर दिया। प्रतिहार लोग कन्नौज छोडकर " बारी " चले गये थे। इस संस्कृति काल का लाभ उठाकर राठौर चंद्रदेव ने कन्नौज के खंडहर मे अपना डेरा जमा लिया और प्रतिहार परिवार को वहां से भगा दिया। संयोगवश इस समय ग्वालियर दुर्ग की देखभाल इल्लभट्ट परिहार एवं कछवाह दूल्हाराय तेजकर्ण था। वह कन्नौज के इस सरदार परमादेव का मामा था। उसने प्रतिहारो को निराश्रित देखकर भांजे परमादेव को बारी जाने से रोक लिया और सपरिवार ग्वालियर दुर्ग में शरण दे दिया।। 


परमादेव हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाला नही था। उसने एक संगठित सेना बनाई सभी को एक किया। एक सुदृढ सैन्य संगठन हो जाने पर सन 1045 ईस्वी मे प्रतिहारों ने पुनः ग्वालियर पर अधिकार जमा लिया और अपने को राज्य का राजा घोषित कर दिया। विरोध करने वालो को राज्य से भगा दिया। सन 1193 के आस पास ग्वालियर तथा चंदेरी राज्य के अंतर्गत वेतवा नदी के पश्चिम का चंबल यमुना संगम से लेकर उत्तरी मालवा तक का क्षेत्र प्रतिहारों के आधीन था।


किंतु मुहम्मद बिन साम गोरी से प्रतिहारों का यह अधिकार देखा न गया तो उसने 1195 ईस्वी मे ग्वालियर दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। उस समय प्रतिहारो की सहायता करने वाला कोई न रहा तो उन्होने गोरी से समझौता कर लिया। समझौता होने पर भी गोरी ने ग्वालियर पर तुगरिल को बयाना का हाकिम बनाकर उसे ग्वालियर दुर्ग जीतने का आदेश देकर चला गया। इस प्रकार तुगररिल ने आस पास के गांवो को काफी दिन तक लूटा खसोटा। किंतु नटुल प्रतिहार के पौत्र तथा प्रताप सिंह के पौत्र विग्रह प्रतिहार से ग्वालियर की यह दुर्दशा देखी न गई उसने तुर्कों की संरक्षण टोली को ग्वालियर से खदेड कर भगा दिया।और 14 वर्ष के अंतराल से पुनः ग्वालियर पर अपनी सत्ता स्थापित की। विग्रह प्रतिहार और उसके भाई नरवर्मा की वंशावली दो ताम्रपत्रों से प्राप्त होती है। अतः 100 वर्षो की अवधि में परमादेव के वंशज विजयपाल,  वासुदेव , कर्णदेव और सारंगदेव आदि ने ग्वालियर राज्य का संचालन किया - इस वंश की वंशावली इस प्रकार है- 


ग्वालियर और नरवर के बीच चटोली ग्राम में सन 1150 ई. का एक शिलालेख मिला है। जिसमे रामदेव प्रतिहार उल्लेख है। यह रामदेव प्रतिहार ग्वालियर के अंतिम प्रतिहार राजा कर्णदेव के तृतीय पुत्र थे, जिन्हें बाद मे औरैया इलाका दिया गया। इसके पश्चात ग्वालियर गढ के गंगोलाताल के वि. सं. 1250 तथा 1251 के दो शिलालेख प्राप्त हुए है। जिनसे यह ज्ञात होता है की इन वर्षों में गढ पर जयपाल देव राज्य कर रहे थे। उन जयपाल देव की मुद्राएँ भी प्राप्त हुई है। हसन निजामी ने जिस सोलंखपाल का उल्लेख किया है वह इन्ही जयपाल के उत्तराधिकारी थे। जिसका वास्तविक नाम सुलक्षणपाल था एवं जिनका मुगल सम्राट शहाबुद्दीन के बीच युद्ध हुआ और शहाबुद्दीन ने ग्वालियर गढ को चारो ओर से घेर लिया। उसने यह अनुभव किया की सीधा आक्रमण करने से इस अभेद्य गढ को हस्तगत नही किया जा सकता इसके लिए बहुत दिनो तक गढ को घेरे रहना पडेगा। प्रतिहार राजा को त्रस्त करने के लिए मुगल सम्राट ने रसद पानी बंद करा दिया। हसन निजामी के ताजुल म आसिर के अनुसार - सुलक्षणपाल भयभीत और हताश हो गये तथा उन्होने संधि की चर्चा की और कर देने के लिए सहमत हो गये, दस हांथी उपहार में दिये गये। शहाबुद्दीन ने यह संधि स्वीकार कर ली और गजनी लौट गया। उसका सेनापति कुतुबुदीन ऐवक दिल्ली लौट गया और दूसरा सेनापति शहाबुद्दीन तुगरिल " त्रिभुवन गढ " चला गया।


उधर दिल्ली में भी इस काल मे भारी उथल पुथल मची थी। दिल्ली के सिंहासन पर कुतुबुद्दीन ऐवक बैठ गया। वह एक विलासी एवं मक्कार था। उसके हाथ मे प्रतिहार राजा सुलक्षणपाल ने ग्वालियर की सत्ता दे दी थी। जिससे कुतुबुद्दीन ऐवक तथाबहाउद्दीन तुगरिल के बीच मनमुटाव हो गया था। इसी मनमुटाव के कारण सन 1210 ई. में उसी के एक दास शमसुद्दीन इलतुमिश के हांथो हत्या करवा करवा दी गई और उसे स्वयं दिल्ली का सुल्तान बना दिया गया। उसे शासन से नही धन से मतलब था। इसीलिए सुल्तान बनते ही देश नगरों ग्रामों को लूटना प्रारम्भ कर दिया। उसको बताया गया की ग्वालियर दुर्ग मे बहुत धन संपदा है और उसने पहले ही तुर्को को मार भगाया, जो सुल्तान का शत्रु है।


अतः इलतुमिश ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। दिल्ली की भारी सेना के सामने राजपूत सेना बहुत कम थी, किंतु परिहार राजाओं ने न तो हथियार डाले और न ही शत्रु को किले मे घुसने दिया। प्रतिहारों की मोर्चा बंदी इतनी मजबूत थी की कभी - कभी सुल्तान को अपने सैनिकों को मौलवियों के भाषणों और उपदेशों से प्रोत्साहित करना पडता था। दृढ निश्चय के साथ किये जाने वाले युद्ध और सुल्तान के व्यक्तिगत नेतृत्व के कारण लगभग ग्यारह महीने तक इलतुमिश घेरा डाले रहा परंतु किले में घुसने मे सफल नहीं हो पाया। अंत में उसने चालबाजी करने की सोची रात्रि के अंधेरे में वह दुर्ग के पश्चिम की ओर से अंतरी बनाकर घुसा और वहीं से चोरों की भांति दुर्ग में सैनिकों को उतार दिया। चोरों ने दुर्ग का दक्षिणी भाग भी खोल दिया। दुर्ग के अंदर भयानक मारकाट भोर होते तक चली राजपूती सेना बाहर से आ गई सुल्तान भाग निकला। रात में कैद किये सैनिकों व महिलाओं को दुर्ग से निकाला जा चुका था। और इनमें 400 राजपूत और 200 महिलायें थी जिन्हें सुल्तान ने कत्ल करवा दिया।


सुल्तान का दूसरा आक्रमण भी विफल रहा। ग्वालियर के परिहारों ने ग्वालियर गढ प्राप्त करने का प्रयास किया। कुरैठा के वि. सं. 1277 ई. के ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि उस समय ग्वालियर गढ पर विग्रहराज जो कर्णदेव का बडा पुत्र सारंगदेव (मलयवर्मन) ग्वालियर का राजा था, वह बडा नीतिज्ञ था। सुल्तान का तीसरा और अंतिम आक्रमण 12 दिसंबर 1232 को हुआ। मलयवर्मन ने देश पर आई आपदा का मान अन्य राजाओं को कराया। उसके आह्वान पर यदुवंशी,  तोमर , सिकरवार, और सूर्यवंशी राजाओ ने एकत्र होकर एक सुगठित सेना बनाई। इस सेना और दिल्ली की तुर्क सेना के मध्य ग्यारह माह तक भीषण संग्राम चलता रहा। तुर्क सेना लाख से भी उपर थी - उसने सारा ग्वालियर घेर लिया था। और चारो ओर से दुर्ग के लिए रसद पानी  बंद करवा दिया था। राजपूती सेना दिन - ब - दिन घटती जा रही थी। उधर मेरठ , आगरा , दिल्ली , कानपुर, से धन और जन दोनों आ रहे थे , किंतु फिर भी परिहारों की स्थिति काफी जर्जर होती जा रही थी। अब युद्ध अवसान की ओर जा रहा था।


अंत में 20 नवंबर 1233 ई. को ग्वालियर महारानी तोंवरीदेवी ने क्षत्रियों को अंतिम समर मे कूद पडने का संदेश भेज दिया। सभी क्षत्राणियों ने साज श्रंगार किया चंदन की विशाल चिता बनवाई गई और " जय दुर्गे जय भवानी " कहते हुए हजारो ललनाएं जौहर की धधकती ज्वाला मे स्वाहा हो गई। इस प्रकार प्रतिहार रानियाँ चिता में जौहर हुई और कुछ रानियाँ जौहर ताल में विलीन हुई।


स्वर्ग अवछरा आई लेन । देव सिया भरि देखई नैन।।

धन्य - धन्य तेउं उच्चरै । सुर मुनि देखी सर्वे जय करैं।।


क्षत्राणियों का जौहर क्षत्रियों ने देखा और वे पीत बसन बांधकर तुर्की सैनिकों पर टूट पडे। देखते - देखते उनहोंने 5000 से उपर शत्रुओं को मौत के घाट उतार दिया। इस समर में 1500 परिहार राजपूत पहुंचे थे। इनमे से एक भी जिंदा नहीं लौटा।


पांच हजार तीन सौ साठ , परे अमीर लोह घटि।।

जूझो सारंगदेव रन संग ,  एक हजार पांच सौ संग।।


जौहर ताल के लिए भांट बताते है की प्रतिहार राजपूत स्त्रियों ने किस प्रकार जौहर कर अपने प्राणों की आहुति दी।।


पहले हमे जु जौहर पारि।

तब तुम जूझे कंध समहारि।।


इस घटना का उल्लेख एक शिलालेख में किया गया था, किंतु अब यह गुम हो गया। उरवाई घाटी को घेरने वाली दिवाल इलतुमिश के समय बनवाई थी। इस अंतिम युद्ध का सेनापति तेजस्वी परिहार मलयवर्मन कर रहा था। तथा उसके पुत्र हरिवर्मा , अजयवर्मा , वीरवर्मा मारे गये। सारंगदेव के बच्चे मऊसहानियां भेज दिये गये। अन्य भाई जिगनी - डुमराई चले गये। ग्वालियर में मलयवर्मन का सौतेला भाई नरवर्मा बच रहा था।


नरवर्मा प्रतिहार ने इलतुमिश के बेटे फिरोज रुकुनुद्दीन से समझौता कर लिया। इस समझौते के अनुसार नरवर्मा तथा उसके कुछ साथी (राजपूत) को दुर्ग में रहने का अधिकार मिल गया। किन्तु दिल्ली मे जब रजिया सुल्तान का शासन काल आया तो उसने ग्वालियर पर डेरा डाला और समझौते को रद्द कर दिया। उसने नरवर्मा को दुर्ग से बाहर निकाल दिया एवं चाहडदेव को दुर्ग की देखभाल सौंप दिया। इस प्रकार कभी तुर्क तो कभी परिहार इस दुर्ग पर अधिकार करते रहे। चाहडदेव भी परिहार था उसने धीरे - धीरे जन - धन एकत्र कर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। किंतु दिल्ली पर पुनः तूफान आया और उलुग खान बलवन की शक्ति बढ गई। दिल्ली की गद्दी छिनने के बाद पहला आक्रमण ग्वालियर पर करके चाहडदेव को बंदी बनाना चाहा। परंतु अजेय दुर्ग के भीतर न घुस सका और वापस लौट गया। सन 1258 ई. मे बलबन बहुत शक्तिशाली हो गया था उसने बडी सेना लेकर ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया उस समय तक चाहडदेव स्वर्गवासी हो चुका था। उसका नाती " गणपति याजपल्ल " दुर्ग का अधिपति था।


इसमें इतनी क्षमता नही थी की कुछ हजार सैनिकों के बल पर वह दिल्ली की सेना का सामना कर सके। अस्तु वह रात में ही परिवार सहित बिहार चला गया। जहां इनके वंशजो ने परिहारपुर ग्राम बसाया और आज भी हजारो की संख्या में आबाद है। और बाकी कुछ प्रतिहार दल झगरपुर , वीसडीह , मैनीयर उत्तर सुरिजपुर , सुखपुरा, हरपुरा आदि ग्रामों मे आबाद है। चाहडदेव ने अपने राज्य का विस्तार चंदेरी तक कर लिया था। इस तरह कभी सत्ता मे तो कभी सत्ताहीन होकर ग्वालियर मे परिहारो का आवास रहा है और लगभग 150 वर्षो तक संघर्षरत शासन किया। और आज भी ग्वालियर अंचल मे लगभग 25 से उपर गांव है प्रतिहारो के जो आवासित है।


ग्वालियर प्रतिहार वंश के शासक


परमादेव प्रतिहार

विजयपाल प्रतिहार

जलहणसी प्रतिहार

वासुदेव प्रतिहार

संग्राम देव प्रतिहार

महिपालदेव प्रतिहार

जयसिंह प्रतिहार

कृपालदेव प्रतिहार

कर्णदेव प्रतिहार

सारंगदेव प्रतिहार


13 वीं शताब्दी तक ग्वालियर से परिहार वंश का पतन हो गया और बचे कुचे परिहार अलग अलग जगह बस गये। जिसमे सारंगदेव ग्वालियर को छोडकर मऊसहानियां आ गये। एवं इनके अन्य भाई राघवदेव परिहार रामगढ जिगनी चले गये, रामदेव परिहार औरैया गये एवं छोटे भाई गंगरदेव परिहार डुमराई में जा बसे जहां आज भी इनके वंशज लगभग 30 गांवो से उपर आबाद है।


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प्रतिहार\परिहार क्षत्रिय वंश।।


जय ना
गभट्ट।।

जय मिहिरभोज।।

Tuesday, 19 September 2017

बादामी गुफा




बादामी गुफा समुह कर्नाटक (विश्व धरोहर)

बादामी उत्तर कर्नाटक के बागलकोट जिले का एक प्राचीन शहर है। यह शहर जो वातापी के नाम से भी जाना जाता है 6 वीं से 8 वीं शताब्दी तक चालुक्य राजवंश (सोलंकी/बघेल) की राजधानी था।

बादामी या वातापी का इतिहास

बादामी दो से अधिक शताब्दियों तक पूर्व या पूर्वी चालुक्यों की राजधानी था। चालुक्य राजवंश ने 6 वीं से 8 वीं शताब्दी तक आंध्रप्रदेश तथा कर्नाटक के अधिकाँश भाग पर अधिकार कर लिया था। पुलिकेसी द्वितीय के शासन काल में यह राजवंश अपनी ऊंचाई पर पहुँच चुका था। चालुक्यों के बाद बादामी ने अपनी प्रसिद्धि को खो दिया।

घाटी में स्थित तथा सुनहरे बलुआ पत्थर की चट्टानों से घिरा हुआ वातापी जो कि बादामी का उस समय का नाम था, दक्षिण भारत के उन प्राचीन स्थानों में से है जहाँ बहुत अधिक मात्रा में मंदिरों का निर्माण हुआ। बादामी अपने सुंदर गुफा मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है जो अगत्स्य झील के आसपास स्थित हैं जो घाटी के मध्य में स्थित है।

बादामी के गुफा मंदिर

यहाँ चार गुफा मंदिर हैं जिनमें से तीन हिंदू मंदिर हैं तथा एक जैन मंदिर है।

पहली गुफा
पहला गुफा मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। यहाँ की विशेषता 18 फुट ऊंची नटराज की मूर्ति है जिसकी 18 भुजाएं हैं जो अनेक नृत्य मुद्राओं को दर्शाती है। इस गुफा में महिषासुरमर्दिनी की भी उत्तम नक्काशी की गई है।

दूसरी गुफा

दूसरी गुफा भगवान विष्णु को समर्पित है। इस गुफा की पूर्वी तथा पश्चिमी दीवारों पर भूवराह तथा त्रिविक्रम के बड़े चित्र लगे हुए हैं। गुफा की छत पर ब्रह्मा, विष्णु शिव, अनंतहसहयाना और अष्टादिक्पलाकास के चित्रों से सुशोभित है।

तीसरी गुफा

तीसरी गुफा बादामी की उस काल की गुफा मंदिरों की वास्तुकला और मूर्तिकला के भव्य रूप को प्रदर्शित करती है। यहाँ कई देवताओं के चित्र हैं तथा यहाँ ईसा पश्चात 578 शताब्दी के शिलालेख मिलते हैं।

चौथी गुफा

चौथी गुफा एक जैन मंदिर है। यहाँ प्रमुख रूप से जैन मुनियों महावीर और पार्श्वनाथ के चित्र हैं। एक कन्नड़ शिलालेख के अनुसार यह मंदिर 12 वीं शताब्दी का है।

बादामी में तथा इसके आसपास पर्यटन स्थल
गुफा मंदिरों के अलावा उत्तरी पहाड़ी में तीन शिव मंदिर हैं जिनमें से शायद मालेगट्टी शिवालय सबसे अधिक प्रसिद्ध है। अन्य प्रसिद्ध मंदिर भूतनाथ मंदिर, मल्लिकार्जुन मंदिर और दत्तात्रय मंदिर हैं। बादामी में एक किला भी है जिसमें कई मंदिर भी हैं तथा साहसिक गतिविधियों को पसंद करने वाले पर्यटक यहाँ रॉक क्लायम्बिंग का आनंद उठा सकते हैं।
बादामी एक आकर्षक स्थान है। बलुआ पत्थरों से घिरे होने के साथ साथ यहाँ प्राचीन गुफा मंदिर तथा किला है। इन मंदिरों को देखने के लिए तथा चालुक्य काल की वास्तुकला देखने के लिए बादामी की सैर अवश्य करें।

 जय राजपूताना।।

Friday, 15 September 2017


हिंदी-दिवस के अवसर पर  19वीं सदी के हिन्दी-संस्कृति साहित्य के महान साधक राजा लक्ष्मण सिंह जी  को सत सत नमन ------अंग्रेज सरकार के  कलक्टर , 10 से अधिक साहित्यिक भाषाओं के ज्ञानी ,कालिदास की कई रचनाओं के हिंदी में अनुवाद कर्ता ।कई पुस्तकों के लेखक और प्रसिद्ध साहित्यकार राजा लक्ष्मण सिंह जी का नाम वजीरपुरा के बच्चे नहीं जानते ।लेकिन उनकी पीली कोठी को बखूबी पहचानते है ।कोठी के रूप में राजा साहिब की यादें अभी भी जिंदा है ।उनके वंशज आज भी उनकी कृतियों को सहेज कर रखे हुये है ।आगरा के बाजीरपुरा मुहल्ले में पीले रंग में पुती बड़ी सी हबेली ही पीली कोठी है । राजा लक्ष्मण सिंह जी । भारतेंदु हरिश्चंद युग से पूर्व  की हिंदी गद्य की विकास यात्रा में हिंदी गद्य को समृद्ध करने और नई दिशा देने वालों में राजा लक्ष्मण सिंह का अविस्मरणीय योगदान  ।सरकारी कामकाज में हिंदी राजा लक्ष्मण सिंह की देन ।
   पारवारिक पृष्ठभूमि ---आधुनिक हिंदी के अनूठे गद्य शिल्पी राजा लक्ष्मण सिंह का जन्म 9 अक्टूबर ,1826ई0 को आगरा में वजीरपुरा के प्रसिद्ध  जादौन राजपूत  जमींदार परिवार में ठाकुर रूपराम सिंह के यहां हुआ था ।इनके पूर्वज बयाना के राजा बिजयपाल के वंशज रितपाल थे जो रि ठाड़ गाँव में रहेजिनके वंशज दुगनावत जादौन कहलाये जो आजकल आगरा के वजीरपुरा और धनी की नगलिया में रहते है ।जब मचेरी(अलवर )के राजा का भरतपुर के राजा के साथ युद्ध हुआ था तब मचेरी की सेना ने इनका पैतृक निवास स्थान करेमना  को जला दिया गया ।इनके पूर्वज कल्याण सिंह ने भरतपुर में आश्रय प्राप्त किया ।इनके बड़े पुत्र को राजा भरतपुर के द्वारा रूपवास परगने का फोतेहदर नियुक्त किया गया ।लेकिन उनकी शीघ्र मृत्यु हो गई ।कल्याण सिंह के छोटे पुत्र जो राजा लक्ष्मण सिंह के ग्रांडफादर थे ने सिंधिया की फ़ौज में नौकरी प्राप्त कर ली ।अंग्रेजों के द्वारा अलीगढ के किले पर जब अधिकार कर लिया था उससे कुछ समय पूर्व उनकी मृत्यु अलीगढ में हो चुकी थी और उनके पुत्र आगरा में आ गये ।
राजा लक्ष्मण सिंह की शिक्षा -----राजा साहिब की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही सम्पन्न हुई थी ।इन्होंने आगरा कालेज आगरा से सीनियर परीक्षा पास की यह बात सन् 1838ई0 के लगभग की है ।राजा साहिब को संस्कृत , अँग्रेजी ,प्राकृत ,ब्रजभाषा ,फ़ारसी ,अरबी ,उर्दू ,गुजराती ,व् बंगला आदि भाषाओँ का उन्हें अच्छा ज्ञान था ।आगरा कालेज से अग्रेजी व् संस्कृत की  पढ़ाई पूरी करने के बाद राजा साहिब ने 1847 ई0 में सरकारी सेवा में प्रवेश किया ।
1- राजा साहब सर्वप्रथम 1850ई0 में पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर के दफ्तर में 100 रूपये मासिक वेतन पर अनुवादक के पद पर नियुक्त हुये ।
2-योग्य तो थे ही,कर्मठ व् कार्य कुशल भी थे ।अतः थोड़े दिनों बाद सन् 1855 ई0 मेंराजा लक्ष्मण सिंह को इटावा का तहसीलदार बना दिया गया ।अपनी प्रतिभा के बल पर वे निरंतर आगे बढते गये और
3-सन् 1856 में बांदा के डिप्टी कलेक्टर के पद पर पहुँच गये ।
4-सन् 1886ई0 में राजा लक्ष्मण सिंह को उनके कार्यशैली और कुशल प्रशासनिक क्षमताओं को देख कर उनको बुलन्दशहर  का कलक्टर बनाया गया ।तत्कालीन पार्लियामेंट ने इसका विरोध किया ।वे 20 वर्ष तक बुलंदशहर के कलक्टर रहे ।उन्होंने बुलहंदशहर का गजेटियर भी लिखा ।
5- 1जनवरी सन् 1877ई0 को राजा साहिब को दिल्ली दरवार में गवर्नर जनरल वायसराय ने "राजा "का खिताव प्रदान किया ।
हुकूमत में थे पर अंग्रेजियत के खिलाफ

----राजा साहिब एक सफल प्रशासनिक अधिकारी तो थे ही ,इसके साथ ही वे हिंदी -संस्कृत साहित्य के महान् साधक भी थे ।उन्होंने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन भी किया ।यही नही उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भीउस ज़माने में बहुत सराहनीय कार्य किये ।इटावा में रहते हुये उन्होने  हिंदी ,उर्दू ,और अंग्रेजी एक पत्र निकलाजिसकी 30 हजार प्रतियां प्रकाशित होती थी ।हिंदी में इस पत्र का नाम "प्रजाहित "था ।प्रजाहित का सम्पादन राजा साहिब स्वयं करते थे  ।ये पत्र सन् 1860 से 1864 ई0 तक लगातार 4 वर्ष प्रकाशित हुआ । सन 1861ई0 में उन्होंने कालिदास के नाटक "अभिज्ञान शाकुन्तलम् "का शकुन्तला नाम से हिंदी में अनुवाद अपने इटावा प्रवास काल में किया था ।इसके बाद राजा साहिब को बुलन्दशहर स्थानांतरित कर दिया और ये  पत्र बंद हो गये।
    राजा लक्ष्मण सिंह  बुलंदशहर में 20 वर्ष तक कलक्टर के पद पर कार्यरत रहे ।उन्होंने वहां की जनता कीअंग्रेजी हुकूमत में भी खुल कर मदद की ।हर तरह की आपदा में लोगों की मदद करते थे ।उनके अंदर राष्ट्रवादी विचारधारा कूट कूट कर भरी हुई थी ।सन् 1882ई0 में उन्होंने कालिदास के रघुवंश और मेघदूत का भी हिंदी में अनुवाद किया ।वे उर्दू साहित्य के भी ज्ञाता थे ।उर्दू में उनकी सर्वाधिक कृतियाँ है ।इनमे कैफियत ए -जिला बुलहंदशर ,किताबखाना -शुमार -ए -मुगरबी ,वास्ते डिप्टी मजिस्ट्रेट ,कीप विट्स ,मजिस्ट्रेट गाइड के अलाबा और भी किताबें लिखी ।
वे सन् 1887ई0 में कलकत्ता विश्व विद्यालय के फैलो, एशियार्तिक सोसाइटी के सदस्य और आगरा नगर पालिका के उपाध्यक्ष  रहे  ।अंग्रेजी हुकूमत की नौकरी करने के बावजूद भी वे अंग्रेजियत के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करते रहे ।
हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में भी राजा साहिब की गूंज ---अंग्रेजी हुकूमत तक इंडियन सिविल सर्विसि में भारतीयों को शामिल नही करती थी ।इस पर लन्दन के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में बहस हुई ।अंग्रेज अफसरों ने भारतीयों को लेजी और कामचोर कह कर संबोधित किया ।तब इटावा के कलक्टर और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक अध्यक्ष ऐओ ह्यूम ने इस पर कडा विरोध जताया ।उन्होंने राजा लक्ष्मण सिंह का उदाहरण देते हुये कहा कि उनके जिले में अनुवादक एक युवक हमारी सोच से कहीं ज्यादा ऊर्जावान है ।ह्यूम ने कहा कि कुंवर लक्ष्मण सिंह  में फिजिकल और मेन्टल इनर्जी भरी पडी है  जो घोड़े की पीठ पर बैठ कर उनसे पहले आगरा पहुँच जाते है ।
सरकारी कामकाज में हिंदी राजा लक्ष्मण सिंह की देन ---हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलवाने को संविधान सभा और बाद नें संसद में लड़ी लड़ाई तो सर्व विदित है  किन्तु यह तथ्य अभी हाल ही में अनावरित हुआ है कि सरकारी कामकाज में हिंदी उपयोग का मार्ग प्रशस्त करने की आधिकारिक शुरुआत सन् 1860 ई0 में ही हो गयी थी और इसके लिए आगरा के वजीरपुरा ठिकाने से जुड़े जादौन ठिकानेदार के पुत्र और प्रख्यात साहित्यकार हिंदी सेवी राजा लक्ष्मण सिंह की भूमिका अहम् थी ।इटावा में ही डिप्टी कलक्टर की हैसियत से ही सन् 1860 ई0 में राजा साहिब ने पटवारियों को हिंदी में खसरा -खतौनी आदि भूमि संबंधी रिकार्ड रखने के निर्देश दिया था ।यह हिंदी के प्रति उनकी आस्था का प्रतीक था ।
व्यस्त प्रशासनिक सेवा में रहते हुये भी राजा साहिब ने माँ सरस्वती की आराधना कर हिंदी साहित्य भंडार को समृद्ध किया और हिंदीभाषा का परचम पुरे देश में फहराया ।यह हर हिंदुस्तानी के लिए अत्यंत गौरव की बात है ।यह उनके प्रतिभा संपन्न महान व्यक्तित्व का प्रतीक भी है ।उनके शाकुन्तलम् नाटक को तो बहुत समय तक भारतीय प्रशासनिक सेवा परीक्षा के पाठ्यक्रम में भी रखा गया था ।
राजा साहिब बुलन्दशहर के कलक्टर के पद से सन् 1888 में  अवकाश प्राप्त कर आगरा आ गये  थे ।70 वर्ष की आयु में 14 जुलाई 1896 ई0को  अपनी अंतिम कर्मभूमि  बुलन्दशहर में गंगा जी के  किनारे  राजघाट पर उनका देहावसान हो गया था ।अपने महाप्रयाण के एक माह पूर्व राजा साहब गंगा मैया की शरण में गंगा तीर चले गये थे ।
    आज भी राजा साहब का परिवार आगरा में प्रतिष्ठित परिवार माना जाता है ---राजा साहिब के पिता जी ठाकुर रूपराम सिंह जी की "पीली कोठी " आज भी आगरा में अपनी पुरातन पहिचान बनाये हुये है । आज भी आगरा का बच्चा -बच्चा पीली कोठी के नाम को जनता है ।उस ज़माने में ठाकुर साहिब की पीली कोठी पर बहुत से लोग उर्दू में अपनी चिठीयां पढ़वाने अक्सर उनके पास आते थे और लोगों को राजा साहब के पूज्य पिताजी का मार्गदर्शन प्राप्त होता था ।इस परिवार के लोग बेसहारा ,सताये हुये और गरीब लोगों की खुले दिल से सहायता करते थे ।इस कारण इस परिवार का लोग काफी सम्मान करते थे और आज भी करते है ।अंत  में , आज मैं,हिंदी दिवस के अवसर पर  हिंदी गद्य के इस महान शलाका पुरुष  की स्म्रति में  श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए  तहे दिल से सत् सत् नमन करता हूँ ।
लेखक तहे दिल से राजा साहब के प्रपौत्र कुंवर दिनेश प्रताप सिंह जी ,ठिकाना -वजीरपुरा ,आगरा  का अत्यंत  आभारी है जिन्होंने मेरे विनम्र आग्रह पर राजा साहब से सम्बंधित बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारियां प्रदान की ।आशा करता हूँ आगे भी सहयोग देते रहेंगे ।राजा साहब के हिंदी गद्य के विकास में योगदान को लिखना असम्भव कार्य है ।मैंने कुछ अंश लिखने का प्रयास किया है जिसके माध्यम से हमारे युवा और बुद्धिजीवी लोग उनके हिंदी प्रेमी भाव से कुछ सीख हासिल करें ।जय हिन्द  ।जय राजपूताना ।।
लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
            गांव -लढ़ोता ,सासनी ,
            जिला-हाथरस, उत्तरप्रदेश
            राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी
            अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
           

Sunday, 10 September 2017


******भाई बचित्र सिंह जी शहीद****

भाई बचित्र सिंह #पवार #राजपूत घराने से संबंध रखते थे ।
इनके बुजुर्गों ने 15 वीं सदी में सिख धर्म अपना लिया था । इस परिवार ने सिख धर्म के लिए बहुत कुर्बानियां की । ये सभी बहुत शूरवीर बहादुर थे और रणभूमि मे शत्रुओं के लिए जैसे काल थे ।
भाई बचित्र सिंघ जी के पिता राव (भाई) मनी सिंघ जी व दादा राव माई दास जी रियासत अलीपुर (नजदीक मुलतान) के राजा थे । उनका परिवार पंवार राजपूत घराने के महाराजा भोज व महाराजा उदय दीप का वंशज था जो मालवा क्षेत्र की रियासत धारा नगरी के राजा थे ।
इनकी वंशावली इस प्रकार है-
राजा सांतल
राजा मघ
राजा मुंज
राजा भोज
राजा जैसिंह
राजा सप्तमुकुट
राजा चतुर्मुकुट
राजा उदयदीप
राजा रणधावल
राजा उधार
राजा अम्ब चरन
राव लोइया
राव बींझा
राव जगन
राव माला
राव रादा
राव लखमण
राव जल्हा
राव हाफा
राव चाहड़
राव राऊ
राव मूलचंद
राव बल्लू राए
राव माईदास
राव मनी सिंह
कुंवर बचित्र सिंह ।

राव (भाई) बल्लू राए जी पवार इनके परदादा थे जो सिखों के छठे गुरु श्री गुरु हरगोबिंद साहिब के प्रमुख सेनापति थे एवं 1634 ईस्वी मे मुगलों से लड़ते हुए शहीद हुए थे ।
राव (भाई) मनी सिंह जी पवार इनके पिता जी थे जो महान योद्धा व विद्वान थे और गुरु गोबिंद सिंह जी के दीवान (प्रधानमंत्री) थे। मुगलों ने बहुत यातनाएं देकर उनको 1734 ईस्वी मे शहीद किया । तब उनकी आयु 90 वर्ष थी।
कुंवर (भाई) बचित्र सिंह जी के 7 भाई और 2 पुत्र समय समय पर दुश्मनो  से लड़ते हुए शहीद हुए थे ।
इनके परिवार के शहीद हुए सदस्यों की कुल संख्या 53 है ।

**तिनहु मझार एक है बचित्र सिंह सूरमा ।
बली बिलंद बाहु दंड शत्र ते गरूरमा ।
सु राजपूत जात ते मुछैल छैल जानिए ।
कृपान ढाल अंग संग जंग मे महानिए ।
@कवि संतोख सिंह- सूरज प्रकाश ग्रंथ

1 सितंबर 1700 को पहाड़ी राजाओं ने
राजा केसरी चंद जसवाल (हिमाचल प्रदेश) के नेतृत्व में  किला लोहगढ का दरवाजा तोड़ने के लिए एक खूंखार हाथी को शराब पिलाकर भेजा ।
पहले गुरु जी ने दुनी चंद(जो माझा क्षेत्र का रहने वाला था) की तरफ इशारा करके कहा कि हाथी का मुकाबला हमारा हाथी (दुनी चंद बहुत डील डौल वाला था) करेगा लेकिन जब दुनी चंद भाग गया तो गुरु जी ने कहा कि अब हाथी का मुकाबला हमारा शेर (भाई बचित्र सिंह) करेगा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने राव (भाई) मनी सिंह जी पवार (रियासत अलीपुर) ,उनके सुपुत्र भाई बचित्र सिंह जी भाई उदय सिंह जी प्रसिद्ध जनरल भाई आलम सिंह जी चौहान आदि सिख जरनैलों को भेजा ।
भाई बचित्र सिंह जी पवार को विशेष नागिन बरछा दिया गया था ।
रणभूमि मे पहुंच कर रणबांकुरे दुश्मन पर टूट पड़े ।
भाई बचित्र सिंह जी ने इतनी ज़ोर से बरछा मारा कि वो हाथी के माथे पर बांधे फौलाद के 7 तवों को चीर कर उसके माथे मे धंस गया ।
हाथी चिंघाड़ते हुए वापस पलटा और पहाड़ी फौज को लताड़ने लगा ।
इधर भाई उदय सिंह जी ने चीते की फुरती से राजा केसरी चंद का सिर काट लिया ।
खालसा फौज की जीत हुई ।

जब सिख फौज गुरु गोबिंद सिंह जी उनकी माता जी और महल(बीवीयां) के साथ आनंदपुर साहिब का किला छोड़ कर निकली तो एकदम से छुपे हुए पहाड़ी राजाओं ने हमला कर दिया ।
इसी दौरान गुरु गोबिंद सिंह जी के गुप्तचरों ने सूचना दी कि दक्षिण की तरफ से सरहिंद के वज़ीर खान की फौज भी आ रही है ।
इस तरह उत्तर की और से आ रही पहाड़ी राजाओं की फौज व दक्षिण की तरफ से आ रही सरहिंदी फौज के बीच
खालसा फौज जरनैल व गुरु गोबिंद सिंह जी घिर गए ।
वहां पर फैसला ये हुआ कि उत्तर की और से आ रही पहाड़ी फौज को रोकने कुंवर उदय सिंह (अलीपुर रियासत) खालसा फौज के साथ जाएंगे एवं दक्षिण की तरफ से आ रही सरहिंद फौज को रोकने कुंवर बचित्र सिंह (अलीपुर रियासत) खालसा फौज के साथ जाएंगे ।
इस तरह कुंवर बचित्र सिंह जी संवत् 1762 पौष
मास सुदी दूज को सरहिंद की फौज घोर युद्ध करते हुए बुरी तरह घायल हुए ।
घायल हुए कुंवर बचित्र सिंह जी को खालसा फौज के कुछ सरदार पास मे ही स्थित कोटला निहंग खान के जागीरदार निहंग खान की हवेली में ले गए जो गुरु घर के श्रद्धालू थे । उनकी बेटी मुमताज़ ने घायल कुंवर बचित्र सिंह जी की बहुत सेवा की । किसी ने रोपड़ की मुगल चौंकी मे सिखों के कोटला निहंग खान की हवेली में होने की सूचना दे दी तो चौंकी का कोतवाल जांच करने पहुंच गया ।पूरे घर की तलाशी मे कुछ नहीं मिला बस एक कमरा बच गया जिसमें कुंवर बचित्र सिंह जी व बीबी मुमताज़ थे । जागीरदार निहंग खान के कहने पर कि इसमें मेरी बेटी व दामाद हैं, कोतवाल ने तलाशी नहीं ली और चला गया ।
लेकिन कुंवर बचित्र सिंह जी के घाव बहुत गहरे थे सो 8 दिसंबर को रात 11-30 बजे शहादत
 का जाम पी गए ।
2 दिन कुंवर बचित्र सिंह जी की सेवा करने के बाद जागीरदार की बेटी मुमताज़ ने उनको मन ही मन अपना पति मान  लिया और सारी जिंदगी शादी नहीं की । कुंवर बचित्र सिंह जी की विधवा के रूप में जिंदगी गुज़ार दी।
इस सब के बारे मे कुंवर जी के परिवार के रावजी/भाट लिखते हैं -
""बचित्र सिंह बेटा मनी सिंह का पोता माइ दास का पड़पोता बल्लू राए का,चन्द्रबंसी,भारद्वाज गोत्र, पंवार,  बंस बींझे का बींझावत, जल्हे का जलहाना, बल्लू का बालावत, साल सत्रह सौ बासठ पौष मास सुदी दूज वीरवार के दिहुं मलकपुर के मलहान रंघड़ां (मुस्लिम राजपूत) गैल युद्ध मे घायल हुआ ।गाम कोटला परगना निहंग खान के ग्रह रहा ,पौष मासे सुदी चौथ शनिवार के दिवस डेढ़ पहर रैन गई श्वास पूरे हुए ।निहंग खान की पत गुरु राखी।इसकी बेटी का सत रहा।""
    (भाट बही मुलतानी सिंधी)

Friday, 8 September 2017

रोजगार मेला

क्षत्रिय रोजगार मेला -2017

आप सभी क्षत्रिय बन्धुओं कॊ बड़े हर्ष के साथ सूचित किया जाता है कि क्षत्रिय एकता मंच (रजि) हरियाणा 17 सितम्बर 2017 रविवार सुबह :-9:00 2:00 तक ऑडिटोरियम नगर निगम सभागार फरीदाबाद में राजपूत रोजगार मेले का आयोजन करने जा रहा है जिन राजपूत बच्चों ने 10th,12th ITI,Polytechnic,BBA,BA,Bcom,Bsc,Btech.और कोई भी अन्य कोर्स किया हुआ है वह लोग अपने बायोडाटा हमे नीचे दिये हुये मेल आईडी पर और व्हाट्सपर भी भेज सकते है ।ताकि संस्था कार्यक्रम से पहले आप सबके लिये आपकी योग्यता अनुसार कम्पनियों कॊ बुला सके ।और इस प्रकार हम सब लोग मिलकर अपने बेरोजगार राजपूत युवाओं की मदद कर सके। और आप सभी इस कार्य में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले ।और कार्यक्रम कॊ सफल बनाये ।ऐसी हम अपने सभी राजपूत भाइयों से अपेक्षा रखते है ।आप सभी अपने सुझाव भी दे।

धन्यवाद 🙏🏻🙏🏻

सम्पर्क सूत्र:-9899916566/9810245566/9990006428/9654873117/9711154474/9990898125/9891230142/9873918525

मेल-आईडी-kshatriyamanch@gmail.com

Thursday, 7 September 2017

चंदेरी की मणिमाला का जौहर


27 जनवरी 1528 की रात्रि का अंतिम प्रहर समूची प्रकृति सोई पड़ी थी भोर होने मे एक पहर शेष था सूर्योदय में यकायक रणतूर्य बज उठे, सुरक्षा चौकियों से साबधान होने के संकेत मिलने लगे। दुर्ग के प्रहरियों ने रणतूर्य बजाकर सजग होने का संदेश दोहराया उत्तर दिशा से धूल का बवंडर चंदेरी की ओर बढ़ा चला आ रहा था । कुछ ही समय में धूल और लाली के मिश्रण ने चंदेरी नगर को ढक लिया था। महाराज मेदनीराय परिहार ने चारों ओर दृष्टि डाली तब पता चला कि चंदेरी नगर चारों ओर से बाबर की तोपों से लैस सैना द्वारा घेरा जा चुका हैै। तभी भागता हुआ प्रहरी आया। महाराज की जय हो.... तुर्क सैनिक एक पत्र देकर गया है। महाराज मेदनीराय ने पत्र पढ़ा....।
मुझे सख्त अफसोस है , कि हिंद के क्षत्रियों में जोश ही बहुत है पर होश की बहुत कमी है लेकिन तुमसे उम्मीद है , कि हिंद में और क्षत्रिय में अपने होशो हबाश की मिसाल कायम करके मेरी मातहती कबूल कर लोगे। काबुल से लेकर बेतवा तक के मालिक से दोस्ती करने पर तुम्हारा रुतवा बढ़ेगा न कि घटेगा बड़ों की दोस्ती हमेशा फायदेमंद रहती है। अब अपनी अक्ल से काम लेना अपनी औकात को भी नजर अंदाज ना करना। मैं भी तुम्हारी दोस्ती पर फक्र करुंगा .....।
शहंशाह बाबर

इस भावी युद्ध की सूचना राणासांगा को भेजी जा चुकी थी । परंतु बाबर का सौभाग्य कहिये , कि राणा सांगा इस युद्ध में भाग नहीं ले सके। बल्कि ठीक इसी समय एक प्रहरी तुर्क वेश में रांणासांगा का पत्र लेकर आया।
मेरे प्रिय मानस पुत्र मेदनीराय तुम्हारी चिंता में चित्तोड़ से चंदेरी के लिये चला अब एरच मे ठहरा हूं , मेरे जीवन का यह अंतिम ठहराव है।  अब कुछ ही देर में प्राण इस विकलांग शरीर से नाता तोड़ देगें। मेरे मन की इच्छा अतृप्त ही रह जायेगी। मैं चाहता था कि मेरे प्राण इस शरीर को युद्ध स्थल में ही छोड़ते , जिससे मुझे तृप्ति , तुम्हें सहयोग और आने वाली पीढ़ी को प्रेरणा मिलती और बाबर का  हिसाब-किताब भी पाई-पाई चुकता हो जाता।
प्रिय मेदनीराय.....थोड़े से साधनों पर निर्भर पिंजड़े मे बंद पंक्षी की भांति तुम्हारी स्थिति आगई है। अब तुम्हे बल से नही बुद्धि से काम लेना है। हमारी भावुकता का ही परिणाम है कि यवन भारत में आ गये  यह भावुकता के संस्कार अपने रक्तगत दोष के परिणाम हैं। जिन पर तुम संयम और विवेक के अंकुश से विजय पा कर दूरदर्शी बुद्धीमत्ता पूर्ण निर्णय लोगे। इसी विश्वास के साथ तुम्हे युद्ध का होता बनाकर अब अपने जीवन की अंतिम आहुती युद्ध के मार्ग मे दे कर जा रहा हूं। कुछ और अधिक लिखता लेकिन अब और लिखने की सामर्थ नही है।
रांणासांगा.........।

तभी मेदनीराय ने संकल्प लिया हे धर्म पिता आपका मानस पुत्र रक्त की सरिता में स्नान कर तुर्कों के रक्त को अंजुली मे भर ही आपका तर्पण करेगा उसी से आपकी आत्मा तृप्त होगी। तभी बाबर के विशेष दूत शेखगुरेन तथा अरयाश पठान ने पत्र का जबाव मांगा.......।
मेदनीराय.....क्षत्रिय है.... भारत के इतिहास में क्षत्रिय भेंट नही लेते हैं...जितनी आग उसकी तोपों मे है ,इतनी गर्मी तो हर हिंद के क्षत्रिय के खून मे होती है.......।
महाराज मेदनीराय परिहार बाबर से युद्ध की घोषणा करते है....। बाहर शंखध्वनी तथा रणतूर्य बज उठते हैं राजपूतों की भुजायें फड़क उठती हैं।
प्रिये मंणिमाला अब हमे विदा दो हो सकता है ,यह हमारे जीवन का अंतिम मिलन और अंतिम विदा हो।
आर्यपुत्र.......कौन सी शक्ति है ? संसार में भारतीय नारी के सुहाग को मिटा सकती है ? हॉ इतना अवश्य माना जा सकता है कि हमारा आधा अंग युद्ध की ओर जा रहा है यदि कही वह रणचंडी का प्रिय हो गया तो अविलंम्व यह दूसरा अंग भी अग्निमार्ग से अपने आधे अंग से जा मिलेगा फिर आप कैसे कह सकते है कि यह हमारा अंतिम मिलन है।
 ( भारत मे किसी क्षत्रिय सेना का सामना पहली बार तोपों से हुआ था)

 भले ही राजपूत सेना का संख्या बल कम था पर पहले ही हमले मे तुर्क सेना के अग्रिम पक्ति के सैनिक काट डाले गये सेनापति मेहमूद गाजी के उकसाने पर भी तुर्क सेना पीछे हटने लगी। इस युद्ध में बुंदेलखंड के राव, सामंत,और लड़ाकू वीर क्षत्रिय युद्ध के आमंत्रण पर स्वेच्छा से मातृभूमि पर प्रांणोत्सर्ग करने आ पहुचे। सैना मे त्राहि त्राहि मच गई । खानवा और पानीपत का विजेता बाबर भी क्षत्रियों के विकट युद्ध से भयभीत हो गया। इस विषम परिस्थिति को आंक कर पीछे हट गया और खच्चर गाड़ियो पर लदी तोपों को आगे बढ़ा दिया गया। तथा घुड़सवार सैनिको को दांये तथा बांये से आक्रमण का हुक्म दिया(मानो भेड़िये सिंहों के घेरने की कोशिस कर रहे हैं ) युद्ध के नवीन संचालन से सिंहों की गति अवरूद्ध हो गई तोपों की मार से चीख-चिल्लाहट बढ़ी तो बढ़ती ही गई।

क्षत्रियों की आधी सेना तुर्कों की चौगनी सैना को मार कर वीरगति को प्राप्त हो चुकी थी। संध्या हो चुकी थी आज का युद्ध समाप्त हुआ। मेदनीराय अपने सेनापति नारायण के साथ अपनी सेना को एकत्र कर दुर्ग वापस लौटे।
रात्रि का प्रथम पहर था। रानी मणिमाला महाराज मेदनीराय के शरीर पर लगे घाव धोकर राज वैध की औषधि लगाकर गहन चिंतन में लेटे तभी हॉफते हुये सेनापति... नारायण ....महाराज की जय हो..... अहमद खॉ ने नगर का द्वार खोल दिया है नगर में बाबर की सैना घुस आई है। महाराज मेदनीराय झटके से उठे और पीछे मुड़कर बस इतना कहा विदा.... अंतिम विदा मंणि......और बाहर निकल आये। महारानी मणिमाला किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ी देखतीं रहीं। महाराज मेदनीराय ने नगर के मध्य पहुच कर शंखध्वनि दी।
हर हर महादेव का घोष दोहरा कर क्षत्रिय तुर्को पर टूट पड़े तिल तिल बढ़ना अब तुर्कों के लिये मौत का खुला खेल था। इस परिस्थिति को भांप कर बाबर ने चारों और से तोपों को चलाने का हुक्म दिया। कुछ ही क्षणों मे महाराज मेदनीराय घायल हो कर जमीन पर गिर पड़े। महाराज के विशेष सहयोगी नारायण ने परिस्थिति को भांप कर महाराज को कंधों पर उठा दुर्ग की ओर बढ़ गये।

इधर तुर्क सेना ने चंदेरी नगर में आग,लूट तथा हत्या का जो कार्य सुरू किया दूसरे सारे दिन चलता रहा। सूर्यास्त होने पर टीले पर झंडा गाढ़ दिया इधर रात्रि के तीसरे पहर प्रतिहार मेदनीराय ने ऑखें खोली
 महाराज मेदनीराय खड़े हुये हाँ अब मे अतिम युद्ध करने जा रहा हूं...
 हर हर महादेव करते हुये राजपूत दुर्ग के प्रमुख द्वार से बाहर आगये दुर्ग का द्वार खोल दिया गया जो आज भी खुला है। राजपूत तुर्कों पर घायल शेर की भांति टूट पड़े। दोनों ओर से अंतिम युद्ध लड़ा जाने लगा दुर्ग के मुख्य द्वार से रक्त की सरिता वहने लगी लाशों के ढेर लग गये। दिन के तीसरे पहर तक युद्ध चला और सभी महाराज मेदनीराय सहित तुर्कों को काटते काटते वीरगति को प्राप्त हो गये। बाबर भी चंदेरी दुर्ग मे घुसने मे रक्त की धारा लांघ ने मे कांप रहा था। यह देख कर बाबर के मुह से घबरा कर निकल गया...ओह..खूनी दरबाजा....।

उस दरबाजे को आज भी खूनी दरबाजे के नाम से जाना जाता है। अंतिम बचे प्रहरी ने महारानी मणिमाला को संदेश दिया....अन्नदाता वीरगति को प्राप्त हो गये। मणिमाला
चिर सुहागन मणिमाला के संकेत पर गिलैया ताल किनारे बनी विशाल चिता मे अग्नि प्रज्वलित करदी गई। महारानी मणिमाला के आदेश पर विशाल चिता मे अग्नि प्रज्वलित कर दी गई। कुछ ही क्षणों मे लपटे आकाश छूने लगीं। गिलैया ताल किनारे 1500 राजपूत रमणियों ने अपने जीवन को होम कर दिया। देखते ही देखते समूचां दुर्ग आग का गोला बन चुका था।  जैसे ही तुर्क सैनिक दुर्ग के भीतर जाने को हुये तो बचे हुये दो-चार सैनिकों ने मोर्चा सभाहला औऱ  बीरता पूर्बक लड़ते हुये वीरगती को प्राप्त हुए और अहमद खॉ बाबर के अगल-बगल खड़े हुये जलती चिता को देख रहे थे। जीवित जलती कोमलांगीयों को देख बाबर वेचैन हो गया। उसका कठोर ह्रदय भी पीडा से कराह उठा उसी समय चिता के भीतर से एक सनसनाता हुआ तीर आया और बाबर की पगड़ी मे लगा और वह जमीन पर गिर गई। तुर्कों मे फिर से आतंक छा गया तब बाबर के सभी सैनिक भाग कर चिता के नजदीक पहुचे और देखा कि मणिमाला अपने तरकश के तीर प्रयोग कर खाली धनुष कंधे पर डाल कर उस महाचिता को प्रणाम कर सुहाग के गीत गाती हुई चिता की ओर ऐसे बढ़ती गंई जैसे मुगल बेगम फूलों की सैर करने जाती हैं।
बाबर ठगा सा तलबार टेके हुये एकटक खड़ा देखता रहा और बाबर ने अपनी तलबार चिता मे डालकर श्रधांजली दी। बाबर अनमना सा अपने खेमे मे लौट आया चंदेेरी दुर्ग जीतकर बाबर ने विजय उत्सव नही मनाय। बाबर ने चंदेरी के भग्न ध्वस्त दुर्ग की सुवेदारी अहमद खॉ को सौप कर उसी समय दिल्ली के लिये कूच कर दिया। चंदेेरी दुर्ग की जलती चिता भभकती रही इस सुहाग की आग को लोगों ने 15 -15 कोस दूर से देखा। चंदेरी जौहर का पता चलते ही सुदूर अंचल की प्रजा भागी भागी आई और श्रद्धा सुमन अर्पित कर धन्य हुई।

राजपूतो का गौरवान्वित इतिहाश

सभी भाइयो से तह दिल से निवेदन है कि यह ब्लॉग जातिवाद पर आधारित नही है ।

आजादी से पहले एवं बाद में राजपूत समाज के जिन जिन वीरो ने भारत माता की पुण्य धरती पर जन्म लिया हैं उनकी महानता तथा वीरता से वर्तमान पीढ़ी को रूबरू कराना ही हमारा उद्देश्य हैं ताकि आने वाली पीढ़ी अपने पूर्वजो उओ सदा याद रखे उनकी वीरता को याद रखे एवं उनके सत्यवादी मार्ग पर चले।
वीर केवल मात्र किसी जाती विशेष में नही हुए सभी जातियों में अलग अलग वीरो ने जन्म लिया हैं उन सभी वीरो को शत् शत् नमन।
भारत की पुण्य धरती पर जितने भी वीरो ने जन्म लिया है  उनकी जीवनशैली से आपको अवगत कराने की पूरी कोशिश हम करेंगे।