Thursday, 30 November 2017

पूज्य श्री आयुमान सिंह जी द्वारा लिखित पद्मिनी के जोहार की कहानी ममता और कर्तव्य भाग :-1

विक्रम संवत् 1360 के चैत्र शुक्ला तृतीया की रात्रि का चतुर्थ प्रहर लग चुका था । वायुमण्डल शांत था । अन्धकार शनैः शनैः प्रकाश में रूपान्तरित होने लग गया था । बसन्त के पुष्पों की सौरभ भी इसी समय अधिक तीव्र हो उठी थी । यही समय भक्तजनों के लिए भक्ति और योगियों के लिए योगाभ्यास द्वारा शान्ति प्राप्त करने का था । सांसारिक प्राणी भी वासना की निवृत्ति उपरांत इसी समय शान्ति की शीतल गोद में विश्राम ले रहे थे । चारों ओर शान्ति का ही साम्राज्य था । ठीक इसी समय पर चित्तौड़ दुर्ग (Chittorgarh) की छाती पर सैकड़ों चिताएँ प्रदीप्त हो उठी थी । चिर शान्ति की सुखद गोद में सोने के लिए अशान्ति के महाताण्डव का आयोजन किया जा रहा था । और ठीक इसी ब्रह्म मुहूर्त में विश्व की मानवता को स्वधर्म-रक्षा का एक अपूर्व पाठ पढ़ाया जाने वाला था । उस पाठ का आरम्भ धू-धू कर जल रही सैकड़ों चिताओं में प्रवेश (Johar of Chittorgarh) करती हुई हजारों ललनाओं के आत्मोसर्ग के रूप में हो गया था ।

“मैं सूर्य-दर्शन करने के उपरान्त शास्त्रोक्त विधि से चिता में प्रवेश करूँगी। अपने पुत्र गोरा को उसकी वृद्ध माताजी ने अपने पास बुलाते हुए कहा ।
“जो आज्ञा माताजी।’ कह कर गोरा आवश्यक सामग्री जुटाने के लिए घर से बाहर निकलने लगा ।
‘‘और मैं माताजी का जौहर दर्शन करने के उपरान्त चिता-प्रवेश करूँगी |”
गोरा ने मुड़ कर देखा – पंवारजी माताजी को स्नान कराने के लिए जल का कलश ले जाते हुए कह रही थी । यदि कोई ओर समय होता तो उद्दण्ड गोरा अपनी स्त्री के इस आदेशात्मक व्यवहार को कभी सहन नहीं करता पर वह दिन तो उसकी संसार-लीला का अन्तिम दिन था । कुछ ही घड़ियों पश्चात् उसकी माता और स्त्री को अग्नि-स्नान द्वारा प्राणोत्सर्ग करना था और उसके तत्काल बाद ही गोरा को भी सुल्तान अलाउद्दीन की असंख्य सेना के साथ युद्ध करते हुए ‘धारा तीर्थ में स्नान करना था । इसीलिए असहिष्णु गोरा ने मौन स्वीकृति द्वारा स्त्री के अनुरोध का भी आज पालन कर दिया था । वह एक के स्थान पर दो चिताएँ तैयार कराने में जुट गया ।
थोड़ी देर में दो चिता सजा कर तैयार कर दी गई । उनमें पर्याप्त काष्ठ, घृत, चन्दन, नारियल आदि थे । एक चिता घर के पूर्वी आंगन में और दूसरी घर के उत्तरी अहाते की दीवार से कुछ दूर, वहाँ खड़े हुए नीम के पेड़ को बचाकर तैयार की गई थी । विधिवत् अग्निप्रवेश करवाने के लिए पुरोहितजी भी वहाँ उपस्थित थे ।
गोरा की माँ ने पवित्र जल से स्नान किया, नवीन वस्त्र धारण किए, हाथ में माला ली और वह पूर्वाभिमुख हो, ऊनी वस्त्र पर बैठकर भगवान का नाम जपने लगी । गत पचास वर्षों के इतिहास की घटनायें एक के बाद एक उस वृद्धा के स्मृति-पटल पर आकर अंकित होने लगी । उसे स्मरण हो आया कि पहले पहल जब वह नववधू के रूप में इस घर में आई थी, उसका कितना आदर-सत्कार था । गोरा के पिताजी उसे प्राणों से अधिक प्यार करते थे । वे युद्धाभियान के समय द्वार पर उसी का शकुन लेकर जाते थे और प्रत्येक युद्ध से विजयी होकर लौटते थे । विवाह के दस वर्ष उपरान्त अनेकों व्रत और उपवास करने के उपरान्त उसे गोरा के रूप में पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ था। । उस दिन पति-पत्नी को कितनी प्रसन्नता हुई थी, कितना आनन्द और उत्सव मनाया गया था। । गोरा के पिताजी ने उस आनन्द के उपलक्ष में एक ही रात में शत्रुओं के दो दुर्ग विजय कर लिए थे ।
अभी गोरा छः महीने का ही हुआ था कि सिंह के आखेट में उनका प्राणान्त हो गया था । वह उसी समय सती होना चाहती थी पर शिशु के छोटे होने के कारण वृद्ध जनों ने उसे आज्ञा नहीं दी । फिर गोरा बड़ा होने लगा। । वह कितना बलिष्ठ, उद्दण्ड, साहसी और चपल था उसने केवल बारह वर्ष की आयु में ही एक ही हाथ के तलवार के वार से सिंह को मार दिया था। और सोलह वर्ष की अवस्था में कुछ साथियों सहित बड़ी यवन सेना को लूट लाया था । इसके उपरान्त वृद्धा ने अपने मन को बलपूर्वक खींच कर भगवान में लगा दिया ।
कुछ क्षण पश्चात् उसे फिर स्मरण आया कि आज से बीस वर्ष पहले उसके घर में नववधू आई थी| वह कितनी सुशीला, आज्ञाकारिणी और कार्य दक्ष है| आज भी जब वह मुझे स्नान करा रही थी तो किस प्रकार उसकी आँखें सजल उठी थी| गोरा के उद्दण्ड और क्रोधी स्वभाव के कारण उसे कभी भी इस घर में पति-सम्मान नहीं मिला| फिर भी वह उसकी सेवा में कितनी तन्मय और सावधान रहती है| वृद्धा ने फिर अपने मन को एक झटका सा देकर सांसारिक चिन्तन से हटा लिया और उसे भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में लगा दिया । वह ओम नमो भगवते वासुदेवाय’ मन्त्र को गुनगुनाने लगी ।
कुछ क्षण पश्चात् फिर उसे स्मरण आया कि राव रतनसिंह, महारानी पद्मिनी और रनिवास की अन्य ललनायें उसका कितना अधिक सम्मान करती हैं महारानी पद्मिनी की लावण्यमयी सुकुमार देह, उसके मधुर व्यवहार और चित्तौड़ दुर्ग पर आई इस आपति का उसे ध्यान हो आया । उसने आँखें उठा कर प्राची की ओर देखा और नेत्रों से दो जल की बूंदें गिर कर उनके आसन में विलीन हो गई |
इतने में उसका पंचवर्षीय पौत्र बीजल नीद से उठ कर दौड़ा-दौड़ा आया और सदैव की भाँति उसकी गोद में बैठ गया ।
“आज दूसरे घरों में आग क्यों जल रही है दादीसा ? बीजल ने वृद्धा के मुँह पर अपने दोनों हाथ फेरते हुए पूछा । वृद्धा ने उसे हृदय से लगा लिया उसके धैर्य का बाँध टूट पड़ा, नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित हुई और उसने बीजल के सुकुमार सिर को भिगो दिया । बीजल अपनी दादी के इस विचित्र व्यवहार को बिल्कुल नहीं समझा और वह मुँह उतार कर फिर बैठ गया ।
वृद्धा ने मन ही मन कहा – ‘‘इसे कैसे बताऊँ कि अभी कुछ ही देर में इस घर में भी आग जलने वाली है जिसमें मैं, तुम्हारी माता और तुम सभी –“ वृद्धा की हिचकियाँ बन्ध गई । उसने अपनी बहू को आवाज दी – ‘‘बीजल को ले जा ?’ वह मेरे मन को अन्तिम समय में फिर सांसारिक माया में फँसा रहा है।’’

आगे भाग 2 में.............

Monday, 27 November 2017

फिल्म पद्मावती के विरोध का कारण

संजय लीला भंसाली द्वारा निर्मित पद्मावती फिल्म विवाद पर देश के स्वघोषित वामपंथी बुद्धिजीवी न्यूज चैनल्स पर अक्सर कहते मिल जायेंगे कि पद्मावती एक फिल्म ही तो है, इस पर विवाद कैसा? यही नहीं बहुत से बुद्धिजीवी इस मामले में राजनीति व सामाजिक संगठनों द्वारा वसूली भी कारण मानते है| हो सकता है इन बातों में कुछ सच्चाई हो, पर यह यह बात पक्की है कि इन बातों से इतर आम राजपूत की फिल्मों से भावनाएं आहत होती है| फिल्मों का आजतक का इतिहास रहा है- किसी भी फिल्म में एक ठाकुर होगा, वह अत्याचारी दिखाया जायेगा और आखिर हीरो द्वारा उसे घोड़े से घसीटता दिखाया जायेगा| यही बात सबसे ज्यादा राजपूतों को आहत करती है| क्योंकि स्थानीय जनता गांव के साधारण राजपूत को ही, भले वह किसान ही क्यों ना हो, ठाकुर ही समझा जाता है और जब फिल्म वाली बातकर उस पर लोग व्यंग्य करते है तब उसकी निश्चित ही भावनाएं आहत होती है और फिल्म निर्माता को वह अपना दुश्मन नंबर वन समझता है|

आपको बता दें इतिहास पर बनने वाली फ़िल्में राजपूतों की सबसे ज्यादा भावनाएं आहत करती है| इसका सीधा सा कारण है, हर राजपूत के कुछ पीढियों दूर के किसी पूर्वज ने शासन किया है| जिन ऐतिहासिक पात्रों पर फिल्म बनती है उससे आम राजपूत का खून का रिश्ता है| आज रानी पद्मिनी देश के बाकी नागरिकों के लिए बेशक एक रानी थी, लेकिन राजपूत के लिए माँ थी, हर राजपूत का किसी ना किसी तरह उससे या उसके परिवार से खून का रिश्ता है| ऐसे में कोई भी व्यक्ति अपनी माँ, दादी, नानी आदि के किसी फिल्म में उल्टे-सीधे दृश्य कैसे बर्दास्त कर सकता है| यही बात इन कथित स्वघोषित बुद्धिविजियों को समझ नहीं आती|

वर्षों से ठाकुर, सामंत के नाम पर आम राजपूत को फिल्मों में निशाना बनाये जाने को लेकर आम राजपूत के मन में गुस्सा भरा हुआ था, पर उसे अभिव्यक्ति का सही प्लेटफार्म नहीं मिल पा रहा था| अब सोशियल मीडिया के रूप में आम राजपूत युवा को अभिव्यक्ति का प्लेटफार्म मिल चुका है और वह इसी का प्रयोग कर फिल्म उद्योग के खिलाफ अपना रोष अभिव्यक्त कर रहा है| यही नहीं सोशियल मीडिया पर राजपूत युवाओं व बुद्धिजीवियों द्वारा चलाये जागरूकता अभियान का भी असर हुआ है कि अब राजपूत युवा संगठित हो रहे है और विरोध की अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बखूबी इस्तेमाल कर रहे है| अत: जो लोग यह समझते है कि ऐसी फ़िल्में पहले भी बनती आई, अब भी बन गई तो कौनसा पहाड़ टूट गया?

ऐसे लोगों के लिए एक जबाब है कि यह आवश्यक नहीं कि जो गलती पहले बर्दास्त कर ली गई, वह हमेशा बर्दास्त की ही जाएगी| इसका एक ही निवारण है- फिल्म में राजपूत पात्रों को विलेन दिखाना बंद किया जाय, इतिहास पर बनने वाली फिल्मों में राजपूत इतिहासकारों या सम्बन्धित पूर्व राजघराने से सहमति व ऐतिहासिक तथ्य लेकर फिल्म निर्माण किया जायेगा, तब ना किसी की भावनाएं आहत होगी, ना किसी फिल्म का विरोध होगा|

Monday, 13 November 2017

ये व्यक्ति था रानी पद्मिनी के जौहर का प्रत्यक्षदर्शी

कथित सेकुलर इतिहासकार, पत्रकार भंसाली के पक्ष में रानी पद्मिनी के इतिहास को काल्पनिक बताने के लिए भले कितनेही चिल्लाये पर पर यह नग्न सत्य है कि अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ कर आक्रमण किया था| चित्तौड़ लेने की उसकी मंशा बेशक
आर्थिक, राजनैतिक, कुटनीतिक थी| पर राघव चेतन द्वारा भड़काये जाने पर खिलजी की राजनैतिक महत्वाकांक्षा के साथ पाशविक पिपासा का पुट भी लग गया था, ऐसा इतिहास पढने पर आभास होता है| खिजली की चित्तौड़ आक्रमण के लिए सजी धजी सेना के साथ एक ऐसा व्यक्ति भी था, जो इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी था| इस व्यक्ति ने अपनी लेखनी के माध्यम से इतिहासकारों को कतिपय ऐतिहासिक सूत्र उपलब्ध कराएँ है, वो बात अलग है कि अलाउद्दीन खिलजी के डर से वह सब कुछ सीधा सीधा व सच नहीं लिख पाया और कथित सेकुलर गैंग उसकी इसी कमी को दरकिनार कर, उसके द्वारा इशारा किये तथ्यों को नजरअंदाज कर, रानी की कहानी को काल्पनिक प्रचारित करने का कुकृत्य कर रहे है|
जी हाँ ! हम बात कर रहे है खिलजी की सेना के साथ रहे प्रसिद्ध कवि व इतिहासकार अमीर खुसरो की| डा. गोपीनाथ शर्मा अपनी पुस्तक “राजस्थान का इतिहास” में इलियट, हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, भाग-3, पृ-76-77 का हवाला देते हुए लिखते है- “उसकी विद्यमानता में हमें आक्रमण की घटना के कतिपय सूत्र उपलब्ध होते है| वह लिखता है कि सुलतान ने गंभीरी और बेडच नदी के मध्य अपने शिविर की स्थापना की| इसके पश्चात् सेना के दाएं और बाएं पार्श्व से किले को दोनों ओर से घेर लिया| ऐसा करने से तलहटी की बस्ती भी घिर गई| स्वयं सुलतान ने अपना ध्वज चितौड़ नामक एक छोटी पहाड़ी पर गाड़ दिया और वहीं वह अपना दरबार लगता और घेरे के सम्बन्ध में दैनिक निर्देश देता था|”
डा. शर्मा अपनी शोध के बाद आगे लिखते है- “घेरा लम्बी अवधि तक चला| राजपूतों ने किले के फाटक बंद कर लिए और परकोटों से मोर्चा बनाकर शत्रु-दल का मुकाबला करते रहे| सुलतान की सेना ने मजनिकों से किले की चट्टानों को तोड़ने का आठ माह तक प्रयास किया| जब चारों ओर से सर्वनाश के चिन्ह दिखाई दे रहे थे, शत्रुओं से बचने का कोई उपाय नहीं दिखाई दे रहा था और किसी कीमत पर दुर्ग को बचाया नहीं जा सकता था|” हार की स्थिति में स्त्रियों के साथ भीषण व्याभिचार होना तय था| तब स्त्रियों व बच्चों को जौहर की धधकती अग्नि में अर्पण कर दिया गया| इस कार्य के बाद किले के फाटक खोल दिए गए और बचे हुए वीर शत्रु की सेना पर टूट पड़े और वीर गति को प्राप्त हुए|

डा. गोपीनाथ शर्मा की शोध पुस्तक में रानी पद्मिनी व खिलजी के आक्रमण पर जुटाए ऐतिहासिक तथ्य इरफ़ान हबीब जैसे इतिहासकारों के मुंह पर तमाचा है| पर इन बेशर्मों का एक ध्येय है किसी तरह भारतीय संस्कृति व स्वाभिमान पर चोट के लिए इतिहास का बिगाड़ा करो| रानी पद्मावती पर भंसाली का फिल्म निर्माण भी धन कमाने के साथ इसी वामपंथी एजेन्डे को आगे बढ़ाना है| यही कारण है कि देश का तथाकथित प्रगतिशील लेखक समुदाय, पत्रकार इस मुद्दे पर भंसाली के साथ खड़े है|