Thursday, 7 December 2017

वीर दुर्गादास राठौड(दूध की लाज)

A Hindi Story on Veer Shiromanhi Durgadas Rathore By lt.Kr.Ayuvan Singh Shekhawat, Hudeel
“शायद आश्विन के नौरात्र थे वे । पिताजी घर के सामने के कच्चे चबूतरे पर शस्त्रों को फैला कर बैठे हुए थे । उनके हाथ में चाँदी के मूठ की एक तलवार थी जिस पर वे घी मल रहे थे । माताजी पास में ही बैठी उन्हें पंखा झुला रही थी । दिन का तीसरा प्रहर था वह । सामने के नीम के पेड़ के नीचे हम सब बालक खेल रहे थे । बालकों की उस टोली में मेरे से छोटे कम और बड़े अधिक थे । उस दिन बहुत से खेल खेले गए और प्रत्येक खेल में मैं ही विजयी रहा । मेरे साथी बालक मेरी शारीरिक शक्ति, चपलता और तीव्र गति से मन ही मन मेरे से कुढ़ते थे और मैं अपने इन गुणों पर एक विजयी योद्धा की भाँति सदैव गर्व करता था । दो साँड़ों की अचानक लड़ाई से हमारे खेल का तारतम्य टूट गया । साँड़ लड़ते-लड़ते उधर ही आ निकले थे इसलिए सब बच्चे उनके भय से अपने-अपने घर दौड़ गए । मैंनें उन लड़ते हुए साँड़ों के कान पकड़ लिए । न मालूम क्यों उन्होंने लड़ना बन्द कर दिया । उनमें से एक साँड़ मुझे मारने ही वाला ही था कि मैं उसका कान छोड़ कर पूरी गति दौड़ पड़ा । वह साँड़ भी मेरे पीछे दौड़ पड़ा पर उसे कई हाथ पीछे छोड़ता हुआ मैं कूद कर माताजी की गोद में जा बैठा।…….’

“… मैंने अनुभव किया कि गर्म जल की एक बूंद मेरे गालों को छूती हुई नीचे जा गिरी । मैंनें उनपर देखा तो माताजी की ऑखे सजल थी ।’’
मैंने पूछा -“आप क्यों रो रही हैं ?’ उन्होंने एक गहरा निःश्वास छोड़ते हुए उत्तर दिया – ‘‘यों ही ।’

मैंने भूमि पर पैरों को मचलते हुए कहा – “सच बताओ ।’ वे मेरी हठी प्रवृत्ति को जानती थी । इसलिए बोली -“तुम्हें देख कर ऐसी ही भावना हो गई ।’
मैंने पूछा- क्यों? उन्होंने उत्तर दिया – ‘‘तेरी चपलता और तेज दौड़ को देख कर ‘‘
मैंने कहा -“इसी के कारण तो मैं सभी खेलों में जीता हूँ, इसलिए आपको तो प्रसन्न होना चाहिए ।’ उन्होंने कहा -“तेरी इस चपलता को देख कर मुझे डर होने लगा है कि कहीं तू मेरे दूध को न लजा दे ।’ मैंने पूछा -‘‘मैं आपके दूध को कैसे लजा दूँगा ?’ वे बोली – “डर कर यदि तू कभी युद्ध से भाग गया और कायर की भाँति कहीं मर गया तो दोनों पक्षों को लज्जित होना पड़ेगा । मेरे दूध पर कायर पुत्र की माता होने के कारण कलंक का अमिट धब्बा लग जाएगा । तेरी चपलता और गति को देख कर मुझे सन्देह होने लगा है कि कहीं तू इसी भाँति रणभूमि से न दौड़ जाए।”
“… मैं लज्जा और क्रोध से तिलमिला उठा । अब तक अपनी जिस विशेषता को मैं गुण समझ रहा था, वह अभिशाप सिद्ध हुई । मैं माताजी के सन्देह को उसी समय मिटाना चाहता था । मैंनें तत्काल निर्णय किया और माताजी की गोद से उठ कर पास में पड़ी हुई एक तलवार को उठा कर अपने पैर पर दे मारा । मैं दूसरा वार करने ही वाला था कि पिताजी ने लपक कर मेरा हाथ पकड़ लिया और डांट कर पूछा- यह क्या कर रहा है ?’

मैंनें कहा -“ अपने पैर को काट कर माताजी का सन्देह मिटा रहा हूँ. एक पैर कट जाने पर मैं युद्ध-भूमि से भाग नहीं सकँगा|“
पैर से खून बह चला । पिताजी ने कहा – ‘‘यह लड़का बड़ा उद्दण्ड होगा । माताजी ने सगर्व नेत्रों से मेरे पैर के घाव को दोनों हाथों से ढक दिया।’

‘धर्मदासजी, यह घटना सत्तर वर्ष पुरानी है, पर लगता है जैसे कल ही घटित हुई ।“ यह कहते हुए वृद्ध सरदार ने अपनी आँखें खोली ।
“सन्निपात का जोर कुछ कम हुआ है, गुरूजी ?’ चरणदास ने कुटिया में प्रवेश करते हुए पूछा।
“यह सन्निपात नहीं है बेटा ! तुम शीघ्र जाकर खरल में रखी हुई औषधि का काढा तैयार कर ले आआो ।’’
रात्रि के सुनसान में धर्मदास जी की कुटिया धीमे प्रकाश में जगमगा उठी । नदी में जल पीने को जाता हुआ सुअरों का एक झुण्ड उस प्रकाश से चौकन्ना होकर डर्र-डर्र करता हुआ तेजी से दूर भाग गया । चरणदास ने धूनी में और लकडियाँ डालते हुए सुअरों को दूर भगाने के लिए जोर से किलकारी मारी । कुटिया के सामने बँधा हुआ घोडा अपनी टाप से भूमि खोदता हुआ हिनहिनाया । उस हिनहिनाहट की ध्वनि से नि:स्तब्ध वन में चारों ओर ध्वनि का विस्तार हो गया । सैकड़ों पशु-पक्षियों ने उस ध्वनि का अपनी-अपनी भाषा में प्रत्युत्तर दिया । थोड़े समय के लिए उस नीरव वन में एक कोलाहल सा मच गया । धर्मदास जी भी इस कोलाहल से प्रभावित होकर बाहर आए, देखा – चरणदास आग में पूँके मार रहा था ।
“शीघ्रता करो बेटा !’ कहते हुए उन्होंने समय का अनुमान लगाने के लिए आकाश की ओर देखा । पश्चिमी क्षितिज पर मार्गशीर्ष की शुक्ला दशमी का चन्द्रमा अन्तिम दम तोड़ रहा था । और फिर वे तत्काल ही कुटिया के भीतर चले गए ।

क्षिप्रा नदी के प्रवाह द्वारा तीन ओर से कट जाने के कारण एक ऊँचा और उन्नत टीला अन्तद्वीपाकर बन गया था । उसके पूर्व में विस्तृत और सघन वन था । लगभग तीस वर्ष पहले इसी स्थान पर क्षिप्रा के सहवास में धर्मदास जी ने तपस्या के लिए अपना आश्रम बनाया, धर्मदासजी के परिश्रम के कारण आश्रम एक सुन्दर तपोवन में परिवर्तित हो गया। था । तीन वर्ष पहले एक धनाढ्य युवक ने आकर उनसे दीक्षा ली थी । यही युवक चरणदास
के नाम से उनका शिष्य होकर विद्याध्ययन और गुरू-सेवा करने लगा । धर्मदास जी शास्त्रों के प्रकाण्ड पंडित, आयुर्वेद के पूर्ण ज्ञाता, तपस्वी और सात्विक प्रवृति-सम्पन्न महात्मा थे । उनके ज्ञान और तपोबल से आश्रम में सदैव शान्ति का वातावरण रहता था । एक कुटिया, कमण्डल, मिट्टी के कुछ पात्र, चिमटा, पत्थर की एक खरल, कुछ पोथियाँ और थोड़े से मोटे-मोटे ऊनी और सूती वस्त्र- बस यही उनकी सम्पति थी । वन के कन्द, मूल, फल और कभी-कभी चरणदास द्वारा प्राप्त भिक्षान्न द्वारा उनका निर्वाह सरलता से हो जाता था |
धर्मदास जी के इसी आश्रम पर दस दिन पूर्व संध्या समय वीर-भेष में एक वयोवृद्ध सरदार अतिथि के रूप में आए । उनका घोड़ा उन्नत, बलिष्ठ और तेजस्वी था । सरदार की वेश-भूषा, आकार-आकृति और व्यवहार में स्पष्ट रूप से सौम्यता, सरलता और अधिकार की व्यंजना होती थी । वे एक असाधारण व्यक्तित्व -सम्पन्न व्यक्ति थे । उस समय उन्हें हल्का ज्वर था । धर्मदासजी ने अतिथि का यथायोग्य सत्कार किया । वे प्रात:काल उठ कर जाना चाहते थे पर उनके बिगड़ते हुए स्वास्थ्य को देख कर धर्मदासजी ने आग्रह करके उन्हें वहीं रोक लिया । वे दस दिनों से सावधानीपूर्वक उनकी चिकित्सा कर रहे थे पर रोग घटने के स्थान पर बढ़ता ही चला जा रहा था । उस रात को धर्मदासजी को विश्वास हो गया था कि अब सरदार का अन्तिम समय आ पहुँचा है ।

“मैं आज निर्धन और असहाय हूँ, धर्मदासजी इसीलिए आपसे सेवा कराने के लिए विवश हूँ ।’ सरदार ने अपनी घास की शय्या पर हाथ फेरते हुए कहा । ‘‘कयों मेरी सेवा से क्या आपति है महाराज?‘‘ ‘‘आप महात्मा हैं और मैं . |”
‘ऐसे मत कहो दुर्गादासजी, आप महात्माओं के भी पूजनीय हैं ।“ आपकी त्याग और तपस्या के सामने हमारी तपस्या है ही कितनी ?’
‘‘पर आप ब्राह्मण जो हैं ।’’
“आप भी तो हमारे अतिथि हैं। अतिथि-सेवा से बढ़ कर पुण्य लाभ और क्या हो। सकता है ? और फिर आप जैसे अतिथि तो किसी भाग्यवान को ही मिलते हैं।’’
इतने में चरणदास काढा लेकर आ गया । धर्मदासजी ने दुर्गादास जी की नाड़ी देखते हुए उन्हें काढा पिला दिया । फिर उन्होंने पूछा – ‘गीता सुनाऊँ दुर्गादासजी ?
“नहीं धर्मदासजी, अब गीता सुनने का समय नहीं। अब उसे क्रियान्वित करने का समय है ।’’ काढा पीने से उनके शरीर में कुछ गर्मी आई । हाथ के संकेत से धर्मदासजी को अपने पास बुलाते हुए उन्होंने कहा – ‘मुझे सहारा देकर बैठा दो ।” धर्मदास जी ने घास का गट्ठर उनके सिरहाने रखते हुए उन्हें गट्टर के सहारे बैठा दिया ।
‘धर्मदास जी सत्तर वर्ष पुरानी वह घटना अब ज्यों की त्यों याद आ रही है । मेरे इस शरीर में छोटे-बड़े अनेकों घाव हैं, पर न मालूम क्यों पैर वाले उस छोटे से घाव में आज पीड़ा अनुभव हो रही है । मुझे ऐसा लग रहा है कि वह माताजी के सामने किए गए संकल्प की मुझे याद दिला रहा है। यह कह कर उन्होंने बाँई पिण्डली के उस घाव पर हाथ फेरना प्रारम्भ कर दिया ।
“कभी-कभी अन्य लोकों में पहुँच जाने के उपरान्त भी हमारी शुभचिन्तक आत्माएँ हमारा परोक्ष रूप से मार्गदर्शन करती और हमें अपने कर्त्तव्य का स्मरण दिलाती रहती हैं ।’’

“हाँ, धर्मदासजी ! मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि जैसे माताजी का सन्देश कोई मेरे कानों में कह रहा है ।‘‘
इतना कह कर उन्होंने अपनी गर्दन के नीचे किसी सहारे के लिए संकेत किया । धर्मदासजी ने अपना ऊनी कम्बल उनकी गर्दन के नीचे रख दिया ।
“पर धर्मदासजी, मैं कभी डर कर युद्ध-भूमि से भागा नहीं। काबुल की बफॉली घाटियों में सैकड़ों पठानों को हम दो-तीन आदमी अपने वश में कर लेते थे । वे भीमजी कितने बहादुर थे । वे थे तो हमसे बड़े पर अफीम खाने के कारण हम उन्हें अमलीबाबा ही कह कर पुकारते थे । बड़े दरबार भी उन्हें अमलीबाबा ही कहा करते थे ।
“….. हाँ तो एक दिन मीर के एक पठान पहलवान ने आकर कहा कि राठौड़ी लश्कर में मुझसे लड़ने वाला कौन है ? इतना सुनना था कि अमलीबाबा तलवार लेकर सामने आ खड़े हुए । उनके दुबले-पतले शरीर को देख कर पठान पहलवान खूब हँसा । मैंनें तलवार की मूंठ पर हाथ रखा पर दरबार ने इशारे से मुझे बैठा दिया । बात की बात में पहलवान ने अमली बाबा को अपने भाले की नोंक से पिरो कर उलटा लटका दिया और खड़ा कर दिया । दरबार का लज्जा के मारे मुँह नीचा हो गया। । इतने में कोई गूंज उठा ‘‘रण बंका राठौड़ सब लश्कर ने एक साथ दोहराया “रण बंका राठौड़’ इतना सुनना था कि अमलीबाबा ने अपने पेट का एक जोरदार धक्का नीचे की ओर दिया । भाला उनके शरीर को चीरता हुआ ऊपर निकलता गया और अमलीबाबा नीचे की ओर सिरकने लगे । ज्योंही पहलवान के सिर से एक हाथ ऊपर रहे तलवार का एक ऐसा हाथ मारा कि उस पठान का सिर भुट्टे की तरह कट कर दूर जा गिरा ।”
‘अब थोड़ा विश्राम कीजिए दुर्गादास जी ॥“

“मैंनें जीवन में कभी विश्राम नहीं किया धर्मदासजी । अब महाविश्राम करने जा रहा हूँ, इसलिए इस क्षणिक विश्राम की आवश्यकता ही क्या है ?’
‘‘दिल्ली में रूपसिंह राठौड़ की हवेली में अपने स्वामी की राणियों को जौहर-स्नान करा कर मैं शाही लश्कर को काटता हुआ निकल गया । सैकड़ों बार मैं शाही लश्कर को काटता हुआ इधर से उधर निकल गया पर डर कर एक बार भी नहीं भागा । मैंनें माताजी के दूध को कभी नहीं लजाया धर्मदासजी ।’
“….. मैंनें अपने स्वामी के द्वारा सौंपे गए कर्त्तव्य को भली-भाँति पूरा किया । तीस वर्षों के निरन्तर संघर्ष के उपरान्त मरूधरा आज स्वतंत्र हुई । मेरे स्वर्गीय स्वामी महाराज जसवन्तसिंहजी के आत्मज जोधपुर की गद्दी पर विराजमान हैं । चामुण्डा माता उनका कल्याण करें । अजीतसिंह जी जन्मे ही नहीं थे उसके पहले ही मैंनें उनकी सुरक्षा का वचन अपने स्वामी को दिया था । आज वे पूर्ण युवावस्था में जोधपुर की गद्दी पर आसीन हैं – मेरे कर्त्तव्य की इतिश्री हुई । मैंनें स्वामी-सेवक धर्म का भली-भाँति पालन किया है धर्मदासजी । माताजी के दूध को कभी लजाया नहीं धर्मदासजी ।’
“……………..मैंने सदैव औरंगजेब के प्रलोभनों को ठुकराया, घाटी की लड़ाई में औरंगजेब की बेगम गुलनार को कैद करके उसके साथ भी सम्मान का व्यवहार किया, अकबर के बाल-बच्चों को अपने ही बच्चों की भाँति लाड़-प्यार से रखा – पराजित शत्रु पर कभी वार नहीं किया । मैंनें स्वधर्म का उल्लंघन नहीं किया धर्मदासजी । माताजी के दूध को कभी लजाया नहीं धर्मदासजी |”
“…. मैंनें शत्रु को कभी विश्राम नहीं करने दिया और न कभी मैं विश्राम से सोया। नींद मैंनें घोड़े की पीठ पर ही ली, बाटी मैंनें भाले से घोड़े की ही पीठ पर से सेकी और खाई उसे घोड़े की ही पीठ पर । मैंनें राजस्थान के प्रत्येक वन, पहाड़, नदी, नाले, पर्वत और घाटी को छान डाला पर कर्त्तव्य की भावना को कभी ओझल नहीं होने दिया धर्मदासजी । माताजी के दूध को कभी लजाया नहीं धर्मदासजी ।’

इतना कह कर दुर्गादास जी ने तीन बार हरि ओम तत्सत् का उच्चारण किया और एक जंभाई ली । धर्मदास जी ने कहा -“आप मारवाड़ के ही नहीं भारत के सपूत हैं दुर्गादास जी । वह जननी बड़ी भाग्यशालिनी है जिसने आप जैसे नर-रत्न को जन्म दिया है |”
“पर अब मैं उसके दूध को लजा रहा हूँ धर्मदासजी ॥“

“हैं ! यह आप क्या कह रहे हैं दुर्गादास जी ? आपका कोई कार्य ऐसा नहीं है जो शास्त्र, धर्म, मयदिा और कर्त्तव्य के विरूद्ध हो ।’
“हैं धर्मदासजी ! माताजी मुझे भीष्मजी की कहानी सुनाया करती थी और कहा करती थीं कि आदर्श क्षत्रिय वही है जिसे भीष्मजी की सी मृत्यु प्राप्त होने का सौभाग्य हो । वे शैया की मृत्यु को कायर की मृत्यु कहा करती थी और आज मैं तृण-शैया पर कायर की भाँति प्राण त्याग रहा हूँ । क्या यह उनके दूध को लजाने के लिए पर्याप्त नहीं है धर्मदास जी ?’
“शास्त्रों में इस प्रकार की मृत्यु .. ॥“ “शास्त्रों के नहीं, वर्तमान अवसर के अनुसार यह मृत्यु वीरोचित नहीं है ।’
अन्तिम शब्द दुर्गादास जी ने कुछ ऊँचे स्वर से कहे थे। अपने स्वामी का स्वर सुन कर कुटिया के सामने बँधा हुआ घोड़ा जोर से हिनहिना उठा । स्वामी की रूग्णावस्था का अनुमान लगा कर उस मूक पशु ने तीन दिन से दाना-पानी और घास बिल्कुल छोड़ दिया था । निरन्तर उसकी आँखों से आँसू टपक रहे थे । उसकी हिनहिनाहट सुन कर दुर्गादासजी को उसकी स्वामी-भक्ति और कृतज्ञता का स्मरण हो उठा । उनके विशाल नेत्रों में से भी कृतज्ञता का स्त्रोत फूट पड़ा और उनकी श्वेत दाढ़ी में मोतियों का रूप धारण कर उलझ गया । दोनों की आत्मा का अन्तर दूर हो गया । दोनों ने मूक रहते हुए ही एक दूसरे की भावना और विवशता को समझ लिया ।
“धर्मदासजी मेरे घोड़े पर जीन कराइए। मैं आज मृत्यु से युद्ध करूँगा । इस शैया पर आकर वह मुझे दबोच नहीं सकती ।’

यह कहते हुए दुर्गादास जी एक बालक की-सी स्फूर्ति से उठे और कवच तथा अस्त्रशस्त्र बाँधने लगे । चरणदास ने गुरू की आज्ञा पाकर तत्काल ही घोड़ा तैयार कर दिया । दुर्गादासजी ने धर्मदासजी के चरणों पर श्रद्धा सहित प्रणाम किया और वे उसी स्फूर्ति सहित घोड़े पर जा सवार हुए । धर्मदास जी भली भाँति जानते थे कि दुर्गादास जी अब इस संसार में कुछ ही घड़ियों के मेहमान हैं पर उस समय उनके मुख मण्डल पर व्याप्त अद्भुत तेजस, प्रकाश और लालिमा को देख कर उनको रोकने का उन्हें साहस न हुआ। “बुझने के पहले दीपक की लौ की भभक है यह ।“ उन्होंने मन ही मन गुनगुनाया ।
इधर प्राची में भगवान मार्तण्ड अपने सहस्त्रों करों द्वारा उदयाचल पर आरूढ़ हुए, उधर जोधपुर दुर्ग में नक्कारे और शहनाइयाँ बज उठी । सुरा, सुन्दरी और सुगन्धि की उपस्थिति विगत रात्रि के महोत्सव की सूचना दे रही थी । मारवाड़ के उद्धार की ऐतिहासिक स्मृति के उपलक्ष में आयोजित महोत्सव-श्रृंखला में उस रात का महोत्सव सर्वोत्तम था । मारवाड़ के स्वातन्त्र्य संग्राम में लड़ने वाले योद्धाओं को जी खोल कर इनाम, जागीरें और ताजीमें दी गई और उसी समय क्षिप्रा नदी के किनारे राठौड़ वंश का उद्धारक, मारवाड़ राज्य का पुनर्सस्थापक निर्धन, निर्जन और असहाय अवस्था में जननी जन्म-भूमि से सैंकड़ों कोस दूर निर्वासित होकर मृत्यु से अन्तिम युद्ध की तैयारी में तल्लीन था । न उसके मुख पर क्लेश था, न पश्चाताप और न शोक । सुदूर प्राची में आकाश का सूर्य उदय हो। रहा था और दूसरी ओर जोधपुर से सैकड़ों कोस दूर निर्जन एकान्त में राठौड़ वंश का सूर्य सदैव के लिए अस्त हो रहा था । अपने जीवन में उस दिन कृतघ्नता सबसे अधिक हँसी, खेली और कूदी, जिसके पाद प्रतिघातों से आक्रान्त होकर उन्नत-लहर क्षिप्रा शरदकालीन शान्त प्रवाह में अपने गौरवशाली अस्तित्व को परिव्याप्त करते हुए सदैव के लिए व्याप्त हो गई ।
प्रातःकाल वालों ने देखा कि भूमि में भाला गाड़े हुए समाधिस्थ योगी की भाँति घोड़े की पीठ पर एक वृद्ध योद्धा बैठा था, न वह हिलता था और न किसी प्रकार की चेष्टा ही करता था । घोड़े की निस्तेज आँखों में से निरन्तर टप-टप आँसू टपक रहे थे, पर हिलता वह भी नहीं था। धर्मदासजी की कुटिया पर यह संवाद पहुँचते ही तत्काल वे वहाँ पर पहुँच गए, देखा –
घोड़े की पीठ पर से बाटी सेकने वाला और उसी पर निद्रा लेने वाला आज उसी की पीठ पर बैठ कर महानिद्रा की गोद में सो गया है। उनके मुँह से इतना ही निकल पड़ा –
“धन्य है दूध की लाज’ और दूसरे ही क्षण वे बच्चों की भाँति फूटकर रो पड़े।

लेखक : स्व.आयुवान सिंह शेखावत, हुडील










Tuesday, 5 December 2017

पूज्य श्री आयुमान सिंह जी द्वारा लिखित माँ पद्मिनि के जौहर की कहानी


इतने में पुरोहित ने आकर सूचना दी – माताजी सूर्योदय होने वाला है; चिता-प्रवेश का यही शुभ समय है । माता तुरन्त वहाँ से उठ खड़ी हुई और चिता के पास आकर खड़ी हो गई । गोरा फूट-फूट कर रोने लगा । पुरोहित ने सांत्वना बंधाते हुए कहा – “गोराजी किसके लिए अज्ञानी पुरूष की भाँति शोक करते हो । क्योंकि –

’’न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||’’

अब गोरा ने अपने को सम्भाला । उसने अपनी स्त्री और बालकों सहित माँ की परिक्रमा की । माता ने उनका माथा सूघा और आशीर्वाद दिया।

“शीघ्रता करिए। पुरोहित ने चिता पर गंगाजल छिड़कते हुए कहा ।

वृद्धा ने तीन बार चिता की परिक्रमा की और फिर प्राची में उदित होते हुए सूर्य को नमस्कार किया और प्रसन्न मुद्रा में वह चिता पर चढ़कर बैठ गई । उसने अपने मुँह में गंगाजल, तुलसी-पत्र और थोड़ा सा स्वर्ण रखा और ब्राह्मणों को भूमिदान करने का संकल्प किया ।

गोरा ने कहा – ‘‘अन्तिम प्रार्थना है माँ ! स्वर्ग में मेरे लिए अपनी सुखद गोद खाली रखना और यदि संसार में जन्म लेने का अवसर आए तो जन्म-जन्म में तू मेरी माता और मैं तेरा पुत्र होऊँ ।’

माता ने हाथ की उंगली ऊपर कर ईश्वर की ओर संकेत किया और “मेरे दूध की लज्जा रखना बेटा ।’’ कह कर आँखें बन्द कर ध्यानमग्न हो गई । पुरोहित ने वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ अग्नि प्रज्जवलित की । गोरा ने देखा स्वर्णिम लपटों से गुम्फित उसकी माता कितनी दैदीप्यमान लग रही थी । देवताओं के यज्ञ-कुण्ड में से प्रकटित जग-जननी दुर्गा के तुल्य उसने ज्वाला-परिवेष्ठित अपनी माता के मातृ स्वरूप को मन ही मन नमस्कार किया और आत्मा की अमरता का प्रतिपादन करता हुआ गुनगुना उठा –

’ ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’

पुरोहित ने चिता में शेष घृत को छोड़ते हुए श्लोक के दूसरे चरण को पूरा किया‘‘न चैनं कलेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः ।।’

गोरा ने कर्त्तव्य के एक अध्याय को समाप्त किया और वह दूसरे की तैयारी में जुट पड़ा । अलसाए हुए नेत्रों सहित वह उत्तरी चिता के जाकर खड़ा हो गया । पंवारजी ने चंवरी के समय के अपने वस्त्र निकाले, उन्हें पहना, माँग में सिन्दूर भरा, आँखों में काजल लगाया और वह नवदुल्हन सी सजधज कर घर के बाहर आ गई । उसने बीजल का हाथ पकड़ते हुए मीनल को गोरा की गोद में देते हुए मुस्करा कर कहा –
“लो सम्हालो अपनी धरोहर, मैं तो चली।“ गोरा ने बीजल की अंगुली पकड़ ली और मीनल को अपनी गोद में बैठा लिया । उसने देखा पंवारजी आज नव-दुलहन से भी अधिक शोभायमान हो रही थी । वह प्रसन्न मुद्रा में थी और उसके चेहरे पर विषाद की एक भी रेखा नहीं थी । गोरा ने मन ही मन सोचा – ‘‘मैंने इस देवी की सदैव अवहेलना की है। इसका अपमान किया है । अन्तिम समय में थोड़ा पश्चाताप तो कर लूं ॥“

गोरा ने कहा – ‘‘अन्तिम प्रार्थना है माँ ! स्वर्ग में मेरे लिए अपनी सुखद गोद खाली रखना और यदि संसार में जन्म लेने का अवसर आए तो जन्म-जन्म में तू मेरी माता और मैं तेरा पुत्र होऊँ ।’

माता ने हाथ की उंगली ऊपर कर ईश्वर की ओर संकेत किया और “मेरे दूध की लज्जा रखना बेटा ।’’ कह कर आँखें बन्द कर ध्यानमग्न हो गई । पुरोहित ने वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ अग्नि प्रज्जवलित की । गोरा ने देखा स्वर्णिम लपटों से गुम्फित उसकी माता कितनी दैदीप्यमान लग रही थी । देवताओं के यज्ञ-कुण्ड में से प्रकटित जग-जननी दुर्गा के तुल्य उसने ज्वाला-परिवेष्ठित अपनी माता के मातृ स्वरूप को मन ही मन नमस्कार किया और आत्मा की अमरता का प्रतिपादन करता हुआ गुनगुना उठा –


उसने कहा – ‘‘पंवारजी मैंनें तुम्हे बहुत दुःख दिया है । क्या अन्तिम समय में मेरे अपराधों को नहीं भूलोगी ।’ “यह क्या कहते हैं नाथ आप । मैं तो आपके चरणों की रज हूँ और सदैव आपके चरणों की रज ही रहना चाहती हूँ । परसों गौरी-पूजन (गणगौर) के समय भी मैंनें भगवती से यही प्रार्थना की थी कि वह जन्म-जन्म में आपके चरणों की दासी होने का सौभाग्य प्रदान करें |”

“पंवारजी मैंनें आज अनुभव किया कि तुम स्त्री नहीं साक्षात् देवी हो।

“सो तो हूँ ही । परम सौभाग्यवती देवी हूँ इसलिए पति की कृपा की छाया में स्वर्ग जा रही हूँ ।’ यह कह कर पंवार जी तनिक सी मुस्कराई और फिर बोल उठी –

“इस घर में आपके पीछे होकर आई पर स्वर्ग में आगे जा रही हूँ । क्यों नाथ ! मैं बड़ी हुई या आप ?’

परिस्थितियों की इस वास्तविक कठोरता के समय किये गये इस व्यंग से गोरा में किंचित् आत्महीनता की भावना उदय हुई उसके मानस प्रदेश पर भावों का द्वन्द्व मच गया और उसकी वाणी कुण्ठित हो गई ।

इसके उपरान्त पंवारजी आगे बढी । उसने बीजल और मीनल को चूमा, उनके माथों पर प्यार का हाथ फेरा । स्वामी की परिक्रमा की, उसके पैर छुए और वह बोली –

“नाथ ! स्वर्ग में प्रतीक्षा करती रहूँगी, शीघ्र पधार कर इस दासी को दर्शन देना । स्वर्ग में मैं आपके रण के हाथों को देखेंगी । देखेंगी आप किस भाँति मेरे चूड़े का सम्मान बढ़ाते हैं ।’’

गोरा ने सोचा – “ये अबला कहलाने वाली नारियाँ पुरूषों से कितनी अधिक साहसी, धैर्यवान और ज्ञानी होती हैं। इस समय के साहस और वीरत्व के समक्ष युद्धभूमि में प्रदर्शित साहस और वीरत्व उसे अत्यन्त ही फीके जान पड़े | उसने पहली बार अनुभव किया कि नारी पुरूषों से कहीं अधिक श्रेष्ठ होती हैं । अब उसके साहस, धैर्य और वीरता का गर्व गल चुका था । वह बोल उठा –

पंवारजी तुमने अन्तिम समय में मुझे परास्त कर दिया। मैं भगवान सूर्य की साक्षी देकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम्हारे चूड़े के सम्मान को तनिक भी ठेस नहीं पहुँचने ढूँगा।” बोली पंवारजी ने सब शास्त्रीय विधियों को पूर्ण किया और फिर पति से हाथ जोड कर बोली- “नाथ मैं चिता में स्वयं अग्नि प्रज्जवलित कर दूँगी। आप मोह और ममता की फॉस इन बच्चों को लेकर थोड़े समय के लिए दूर पधार जाइये।” गोरा मन्त्र मुग्ध सा –

‘‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’

गुनगुनाता हुआ दोनों बालकों को गोद में उठाकर घर के भीतर चला गया ।

“दादीसा जल क्यों गए पिताजी ? बीजल ने उदास मुद्रा में पूछा ।

“दादीसा भगवान के पास चली गई है बेटा।”
‘‘हम लोग क्यों नही चलते ।’’

“अभी थोड़ी देर बाद चलेंगे बेटा।’

गोरा ने अपने पुत्र के भोले मुँह को देखा । वह उसकी जिज्ञासा को किन शब्दों में शान्त करे, यह सोच नहीं सका । इतने में “भाभू जाऊँ , भाभू जाऊँ “ कह कर मीनल मचल उठी और उसने गोरा की गोद से कूद कर माता के पास जाने के लिए अपने नन्हें से दोनों पैरों को नीचे लटका दिया|

गोरा ने मचलती हुई मीनल के चेहरे को देखा । उसे उसका निर्दोष, भोला और करूण मुख अत्यन्त ही भला जान पड़ा ।

वह आंगन में रखी चारपाई पर बैठ गया और उसने पुत्र और पुत्री को दोनों हाथों से वक्षस्थल से चिपटा लिया । वात्सल्य की सरिता उमड़ चली । वह सोचने लगा – “किस प्रकार अपने हृदय के टुकड़ों को अपने ही हाथों से अग्नि में फेंकूं ? हाय ! मैं कितना अभागा हूँ, लोग सन्तान प्राप्ति के लिये नाना प्रकार के जप-तप करते और कष्ट उठाते हैं पर मैं आप, अपने सुमन से सुन्दर सुकुमार और निर्दोष बच्चों के स्वयं प्राण ले रहा हूँ। मैं सन्तानहत्यारा नहीं बनूंगा, चाहे म्लेच्छ इन्हें उठाकर ले जायें पर अपने हाथों इनका वध नहीं करूँगा ।’’

इतने में “भाभू जाऊँ , भाभू जाऊँ “ कह कर मीनल मचल उठी ।

गोरा उन बालकों को गोदी में उठा कर छत पर ले गया । उसने देखा – ‘‘धॉयधाँय कर सैकड़ों चिताएँ जल रही थी । उनमें न मालूम कितने इस प्रकार के निर्दोष बालकों को स्वाहा किया गया था । उसने देखा मुख्य जौहर-कुण्ड से निकल रही भयंकर अग्नि की लपटों ने दिन के प्रकाश को भी तीव्र और भयंकर बना दिया था ।

“हा, महाकाल ! मुझसे यह जघन्य कृत्य मत करा। हा, देव ! इतनी कठोर परीक्षा तो हरिशचन्द्र की भी नहीं ली थी ।’ कहता हुआ गोरा बालकों का मुँह देख कर रो पड़ा । पिता का हृदय था, द्रवित हो बह चला ।

उसने फिर पूर्व की ओर दृष्टिपात किया । उसकी दृष्टि सुल्तान के शिविर पर गई । उसका रोम-रोम क्रोध से तमक उठा । प्रतिहिंसा की भयंकर ज्वाला प्रज्जवलित हो उठी । द्रवित हृदय भी उससे कुछ कठोर हुआ । उसने सोचा –

“मैं क्यों शोक कर रहा हूँ । मुझे तो अपने सौभाग्य पर गर्व करना चाहिए ।“ उसे अपनी माता और पत्नी का चिता-प्रवेश और उपदेश स्मरण हो आया । ‘
‘मैं अपने इन नौनिहालों को सतीत्व और स्वतंत्रता रूपी स्वधर्म की बलि पर चढ़ा रहा हूँ । वास्तव में मैं भाग्यवान हूँ ।’

वह तमक कर उठ बैठा और बच्चों को गोदी में उठा कर कहने लगा- “चलो तुम्हें अपनी भाभू के पास पहुँचा आऊँ ‘,

’’नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’



गुनगुनाता हुआ वह पंवारजी की चिता के पास बालकों को लेकर चला आया । चिता इस समय प्रचण्डावस्था में धधक रही थी । गोरा ने अपने हृदय को कठोर किया और भगवान का मन में ध्यान किया । फिर अपना दाहिना पैर कुछ आगे करके वह दोनों बालकों को दोनों हाथों से पकड़ कर थोड़ा सा झुला कर चिता में फेंकने वाला था कि पुत्र और पुत्री चिल्ला कर उसके हाथ से लिपट गए । उन्होंने अपने नन्हें-नन्हें सुकोमल हाथों से दृढ़तापूर्वक उसके अंगरखे की बाँहों को पकड़ लिया और कातरता और करूणापूर्ण दृष्टि से टुकर-टुकर पिता के मुँह की ओर देखने लग गए । ऐसा लगा मानों अबोध बालकों को भी पिता का भीषण मन्तव्य ज्ञात हो गया था । उस समय इन बालकों की आँखों में बैठी हुई साकार करूणा को देखकर क्रूर काल का भी हृदय फट जाता । गोरा उनकी आँखों की प्रार्थना स्वीकार कर कुछ कदम चिता से पीछे हट गया । चिता की भयंकर गर्मी और भयावनी सूरत को देखकर मीनल अत्यन्त ही भयभीत हो गई थी; उसने भाभू जाऊँ, भाभू जाऊँ की रट भय के मारे बन्द कर दी । बीजल इस नाटक को थोड़ा बहुत समझ चुका था । उसने पिता से कहा –
“पिताजी ! मैं भी ललाई में तलँगा । मुझे आग में क्यों फेंकते हो?

ममता की फिर विजय हुई । गोरा ने उन दोनों बालकों को हृदय से लगा लिया । उनके सिरों को चूमा और सोचा, – “पीठ पर बाँध कर दोनों को रणभूमि में ही क्यों नहीं ले चलूं ?“ थोड़ी देर में विचार आया, – “ऐसा करने से अन्य योद्धा मेरी इस दुर्बलता और कायरता के लिए क्या सोचेंगे ?“ ये दो ही नहीं हजारों बालक आज भस्मीभूत हो। रहे हैं ।

वह फिर साहस बटोर कर उठा – अपने ही शरीर के दो अंशो को अपने ही हाथों आग में फेंकने के लिए । उसने हृदय कठोर किया, भगवान से बालकों के मंगल के लिए प्रार्थना की; अपने इस राक्षसी कृत्य के लिए क्षमा माँगी और मन ही मन गुनगुना उठा –
“हा क्षात्र-धर्म, तू कितना कूर और कठोर है ।“ बीजल नहीं पिताजी-नहीं पिताजी’ चिल्लाता हुआ उसके अंगरखे की छोर पकड़ कर चिपट रहा था, मीनल ने कॉपते हुए अपने दोनों नन्हें हाथ पिता के गले में डाल रखे थे । दोनों बालकों की करूणा और आशाभरी दृष्टि पिता के मुंह पर लगी हुई थी ।

गोरा ने ऑखें बन्द की और कर्त्तव्य के तीसरे अध्याय को भी समाप्त किया । अग्नि ने अपनी जिह्वा से लपेट कर दोनों बालकों को अपने उदर में रख लिया । ममता पर कर्त्तव्य की विजय हुई ।

गोरा पागल की भाँति लपक कर घर के भीतर आया । अब घर उसे प्रेतपुरी सा भयंकर जान पड़ा । वह उसे छोड़ कर बाहर भागना चाहता था कि सुनाई दिया –

“कसूमा का निमन्त्रण है, शीघ्र केसरिया करके चले आइए।’’

अब गोरा कर्त्तव्य का चौथा अध्याय पूर्ण करने जा रहा था । उसे न सुख था और न दु:ख, न शोक था और न प्रसन्नता । वह पूर्ण स्थितप्रज्ञ था । मार्ग में धू-धू करती हुई सैकड़ों चिताएँ जल रही थी । भुने हुए मानव माँस से दुर्गन्ध उठी और धुआँ ने उसे तनिक भी विचलित और प्रभावित नहीं किया । वह न इधर देखता था और न उधर, बस बढ़ता ही जा रहा था ।

समाप्त








माँ पद्मिनि के ममता भाग-2

पंवारजी दही के लिए हठ करती हुई अपनी तीन वर्षीया पुत्री मीनल को गोद में लेकर आई और बीजल को हाथ पकड़ कर घर के भीतर ले गई । “कितना सुन्दर और प्यारा बच्चा है । ठीक गोरा पर ही गया है । बची भी कितनी प्यारी है । जब वह तुतली बोली में मुझे दादीथा कह कर पुकारती है तो कितनी भली लगती है। कुछ ही क्षणों के बाद ये भी अग्निदेव के समर्पित हो जायेंगे । हाय ! मेरे गोरा का वंश ही विच्छेद हो जाएगा | एक गोरा का क्या आज न मालूम कितनों के वंश-प्रदीप बुझ रहे हैं । यह सोचते हुए वृद्धा की आँखों में फिर अश्रुधारा प्रकट हो गई । उसने बड़ी कठिनाई से अपने को सम्हाला; सुषुप्त आत्मबल का आह्वान किया और फिर नेत्र बन्द करके ईश्वर के ध्यान में निमग्न हो गई ।
गोरा अब तक यंत्रवत् सब कार्य करने में तल्लीन था । उसने अब तक न निकट भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं पर ही कुछ सोचा था और न अपने मन को ही किसी विकार से उद्वेलित किया था । पर जब जौहर-व्रत सम्बन्धी सम्पूर्ण व्यवस्था समाप्त हो गई तब उसने भाव रहित मुद्रा में प्राची की ओर देखा । उषाकाल प्रारम्भ होने ही वाला था । प्राची में उदित अरूणाई के साथ ही साथ उसे अपनी माता का स्मरण हो आया । उसे स्मरण हो आया कि एक घड़ी पश्चात् सूर्योदय होते ही उसकी पूजनीया वृद्धा माँ अग्निप्रवेश करेगी और वह पास खड़ा-खड़ा उस दृश्य को देखेगा । वह कठोर हृदय था, कूर स्वभाव का था, साहसी और वीर था पर उच्चकोटि का मातृभक्त भी था । अब तक कभी भी उसने माता की अवज्ञा नहीं की थी । माता भी उसे बहुत अधिक प्यार करती थी और वह भी माता का बहुत अधिक सम्मान करता था । पिता का प्यार उसे प्राप्त नहीं हुआ था, पर माता की स्नेह सिंचित शीतल गोद में लिपटकर ही वह इतना साहसी और वीर बना था । माता का अमृत तुल्य पय-पान कर ही उसने इतना बल-वीर्य प्राप्त किया था; उसकी ओजमयी वाणी से प्रभावित होकर उसने अब तक शत्रुओं का मान मर्दन किया था । उसके स्वास्थ्य, कल्याण और उसकी दीर्घायु के लिए उसकी माता ने न मालूम कितने ही व्रत-उपवास किये थे, कितने देवी-देवताओं से प्रार्थना की थी; यह सब गोरा को ज्ञात था । माता के कोटि-कोटि उपकारों से उसका रोम-रोम उपकृत और कृतज्ञ हो रहा था|
तीर्थों में गंगा सबसे पवित्र है, पर गोरा की दृष्टि में उसकी माता की गोद से बढ़ कर और कोई तीर्थ पवित्र नहीं था । उसके लिए मातृ-सेवा ही सब तीर्थ-स्नान के फल से कहीं अधिक फलदायी थी । माता गोरा के लिए आदि शक्ति योगमाया का ही दूसरा रूप है । वही उसके लिए विपत्ति के समय रक्षा का विधान करती और सुख के समय उसे खिलातीपिलाती और अपनी पवित्र गोद में लिपटाती । वही परम पवित्र माता कुछ ही क्षण पश्चात् चिता में प्रवेश कर भस्म हो जाएगी और भस्म इसलिए हो जायेगी कि गोरा जैसा निर्वीर्य पुत्र उसे बचा नहीं सकता । उसे अपने पुरुषार्थ पर लज्जा आई, विवशता पर क्रोध आया । उसने मन ही मन अपने आपको धिक्कारा – “मैं कितना असमर्थ हूँ कि आज अपनी प्राणप्रिय माताजी को भी नहीं बचा सकता ।
फिर उसे ध्यान आया -‘‘मेरी जैसी हजारों माताएँ आज चिता-प्रवेश कर रही हैं और मैं निर्लज्ज की भाँति खड़ा-खड़ा उन्हें देख रहा हूँ, अपने हाथों चिता में आग लगा रहा हूँ, धिक्कार है मेरे पुरूषार्थ को, धिक्कार है मेरे बाहुबल को और धिक्कार है मेरे क्षत्रियत्व को। गोरा उत्तेजित हो उठा और शत्रुओं पर टूट पड़ने के लिए कमर में टंगी हुई तलवार लेने के लिए झपट पड़ा । सहसा उसे ध्यान आया कि अभी तो जौहर-व्रत पूरा करवाना है। वह रुका और पूर्वी तिबारी में बैठी हुई माँ के चरणों में अन्तिम प्रणाम करने के लिए चल पड़ा ।
फिर उसे ध्यान आया -‘‘मेरी जैसी हजारों माताएँ आज चिता-प्रवेश कर रही हैं और मैं निर्लज्ज की भाँति खड़ा-खड़ा उन्हें देख रहा हूँ, अपने हाथों चिता में आग लगा रहा हूँ, धिक्कार है मेरे पुरूषार्थ को, धिक्कार है मेरे बाहुबल को और धिक्कार है मेरे क्षत्रियत्व को। गोरा उत्तेजित हो उठा और शत्रुओं पर टूट पड़ने के लिए कमर में टंगी हुई तलवार लेने के लिए झपट पड़ा । सहसा उसे ध्यान आया कि अभी तो जौहर-व्रत पूरा करवाना है। वह रुका और पूर्वी तिबारी में बैठी हुई माँ के चरणों में अन्तिम प्रणाम करने के लिए चल पड़ा ।

गोरा ने अत्यन्त ही भक्तिपूर्वक ईश्वर ध्यान में निमग्न माता को चरण छूकर प्रणाम किया । माता ने पुत्र को देखा और पुत्र ने माता को देखा । दोनों ओर से स्नेह-सरितायें उमड़ पड़ी । गोरा अबोध शिशु की भाँति माता की गोद में लेट गया । उसका पत्थर तुल्य कठोर हृदय भी माता की शीतल गोद का सान्निद्य प्राप्त कर हिमवत् द्रवित हो चला । माता ने अपना सर्वसुखकारी स्नेहमय हाथ गोरा के माथे पर फेरा और कहने लगी ।

“गोरा तुम्हारा परम सौभाग्य है । स्वतंत्रता, स्वाभिमान, कुल-मर्यादा और सतीत्व रूपी स्वधर्म पर प्राण न्यौछावर करने का सुअवसर किसी भाग्यवान क्षत्रिय को ही प्राप्त होता है। तुमन आज उस दुर्लभ अवसर को अनायास ही प्राप्त कर लिया है । ऐसे ही अवसरों पर प्राणोत्सर्ग करने के लिए राजपूत माताएँ पुत्रों को जन्म देती है । वास्तव में मेरा गर्भाधान करना और तुम जैसे पुत्र को जन्म देना आज सार्थक हुआ है । बेटा, उठ ! यह समय शोक करने का नहीं है ।’ कहते हुए माता ने बड़े ही स्नेह से गोरा के आँसू अपने हाथों से पोंछे ।

मातृ-प्रेम में विह्वल गोरा पर इस उपदेश का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा । उसकी आँखों का बाँध टूट गया । वह अबोध शिशु की भाँति माता से लिपट गया । रण में शत्रुओं के लिए महाकाल रूपी गोरा आज माता की गोद में दूध-मुँहा शिशु बन गया था । कौन कह सकता था कि क्रूरता, कठोरता, रूद्रता और निडरता की साक्षात् मूर्ति, माँ की गोद में अबोध शिशु की भाँति सिसकियाँ भरने वाला यही गोरा था ।

माता ने अपने दोनों हाथों के सहारे से गोरा को बैठाया । वह फिर बोली – ‘‘बेटा! तुझे अभी बहुत काम करना है । मुझे जौहर करवाना है, फिर बहू को सौभाग्यवती बनाना है और बच्चों को भी ….. | यह कहते-कहते वात्सल्य का बाँध भी उमड़ पड़ा, पर उसने तत्काल ही अपने को सम्हाल लिया । वह आगे बोल उठी – ‘‘तेरा इस समय इस प्रकार शोकातुर होना उचित नहीं । तेरी यह दशा देख कर मेरा और बहू का मन भी शोकातुर हो जाता है । पवित्र जौहर-व्रत के समय स्त्रियों को विकारशून्म मन से प्रसन्नचित्त हो चिता में प्रवेश करना चाहिए तभी जौहर-व्रत का पूर्ण फल मिलता है, नहीं तो वह आत्महत्यातुल्य निकृष्ट कर्म हो जाता है

आगे भाग-3 में......